।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
श्रीरामानन्दाचार्य-जयन्ती
मुक्तिमें सबका समान अधिकार


(गत ब्लॉगसे आगेका)
अतः जिज्ञासुमें न तो वर्णआश्रमसम्प्रदाय आदिका अभिमान होना चाहियेन इनका आग्रह होना चाहिये और न दूसरे वर्णआश्रम आदिके प्रति ऊँच-नीचका भाव ही होना चाहिये । वर्णआश्रम आदिका भेद मनुष्योंकी मर्यादाके लिये है और मर्यादा संसारके संचालनके लिये है । परन्तु मुक्तिके लिये वर्णआश्रम आदिका भेद आवश्यक नहीं है । कारण कि मुक्ति शरीरकी नहीं होतीप्रत्युत स्वयंकी होती हैजो कि मुक्तस्वरूप ही है । वर्ण-आश्रमका भेद शरीरको लेकर है । जब शरीर अपना स्वरूप है ही नहीं तो फिर वर्ण-आश्रमका भेद अपना स्वरूप कैसे ?
तस्मादन्यगता वर्णा        आश्रमा अपि नारद ।
आत्मन्यारोपिताः सर्वे भ्रान्त्या ते नात्मवेदिना ॥
                                                               (नारदपरिव्राजक ६ । १४)

‘नारद ! सभी वर्ण और आश्रम अन्यगत (शरीरगत) होनेपर भी भ्रान्तिवश आत्मामें आरोपित कर लिये जाते हैं;परंतु आत्मवेत्ता पुरुष ऐसा नहीं करते ।’

इसलिये मुक्ति होनेपर स्वयंका शरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद होता हैशरीरका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता अर्थात् स्वयं शरीरसे असंग (अलग) होता हैशरीर संसारसे असंग नहीं होता । कारण कि प्रतिक्षण बदलनेवाले शरीरका सम्बन्ध संसारसे हैस्वयंसे नहीं ।

वर्ण-आश्रमकी मान्यता केवल स्वाँगके लिये है । हमारा स्वरूप ब्राह्मण आदि नहीं है । जैसे नाटकमें लक्ष्मण बना हुआ व्यक्ति बाहरसे अपने स्वाँगका ठीक तरहसे पालन करते हुए भी भीतरसे अपनेको लक्ष्मण नहीं मानता । उसके भीतर निरन्तर यह भाव रहता है कि यह तो स्वाँग है,वास्तवमें मैं लक्ष्मण हूँ ही नहीं । ऐसे ही बाहरसे अपने वर्ण-आश्रमका शास्त्र और लोक-मर्यादाके अनुसार ठीक तरहसे पालन करते हुए भी भीतरमें यह भाव रहना चाहिये कि मैं तो भगवान्‌का अंश हूँ !

जो जिस वर्ण-आश्रमका होउस वर्ण-आश्रमके अनुसार विहित कर्मोंका ठीक तरहसे पालन करे और निषिद्ध कर्मोंका त्याग करे तो उसकी अहंता सुगमतापूर्वक छूट जायगी । अगर वह विहितके साथ-साथ निषिद्ध काम भी करता रहेगा तो उसकी अहंता छूटेगी नहीं । निषिद्धके त्यागपर इतना जोर रहना चाहिये कि भूलसे भी मन उस तरफ न जाय । जैसेराजा दुष्यन्तका मन शकुन्तलाकी तरफ चला गया तो उनको दृढ़ विश्वास हो गया कि यह ब्राह्मण-कन्या नहीं हैप्रत्युत क्षत्रिय-कन्या ही है । कारण कि अगर यह ब्राह्मण-कन्या होती तो मेरा मन उसकी तरफ जाता ही नहीं !

असंशयं क्षत्रपरिग्रहक्षमा  यदार्यमस्यामभिलाषि मे मनः । 
सतां हि सन्देहपदेषु वस्तुषु   प्रमाणमन्तःकरणप्रवृत्तयः ॥
                                                                           (अभिज्ञान १ । २१)

 ‘इसमें सन्देह नहीं कि यह क्षत्रियद्वारा ग्रहण करनेयोग्य है, जिससे मेरा विशुद्ध मन भी इसको चाहता है;क्योंकि जहाँ सन्देह होवहाँ सत्पुरुषोंके अन्तःकरणकी प्रवृत्ति ही प्रमाण होती है ।’

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)      
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे