(गत ब्लॉगसे आगेका)
यही बात भगवान् रामके विषयमें भी आती है । उनका मन सीताजीकी तरफ गया तो वे समझ गये कि यह परनारी नहीं है; क्योंकि मेरा सम्बन्ध इसीके साथ होना है‒
रधुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ ।
मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी ।
जेहि सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥
(मानस १ । २३१ । ३)
जो अपनेको किसी एक वर्ण और आश्रमका मानते हैं,वे शास्त्रीय विधि-निषेधके अधिकारी होते हैं । यदि वे निषिद्धका त्याग करके विहित (अपने कर्तव्य) का पालन करें तो उनकी उन्नति अवश्य होगी । यदि वे निष्कामभावसे अपने कर्तव्यका पालन करें और अपनी अहंताको बदल दें कि मैं किसी वर्ण-आश्रमका नहीं हूँ, प्रत्युत केवल योगी, जिज्ञासु अथवा भक्त हूँ तो वे मुक्तिके अधिकारी हो जायँगे ।
ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णोंकी रचना प्रकृतिजन्य गुणोंके अनुसार होती है; जैसे‒सत्त्वगुणकी प्रधानतासे ब्राह्मणकी, रजोगुणकी प्रधानता तथा सत्त्वगुणकी गौणतासे क्षत्रियकी, रजोगुणकी प्रधानता तथा तमोगुणकी गौणतासे वैश्यकी और तमोगुणकी प्रधानतासे शूद्रकी रचना की गयी है । जिसमें ब्राह्मणत्वका अभिमान और आग्रह है, उसकी स्थिति गुणोंमें होनेसे गुणोंके अनुसार ही उसकी ऊँच-नीच गति होगी, पर मुक्ति नहीं होगी‒‘कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । गुणोंके अभिमानवाला गुणातीत कैसे हो सकता है ? नहीं हो सकता । गुणातीत होनेपर वर्ण-आश्रमका अभिमान और आग्रह नहीं रह सकता । अतः अपने वर्ण-आश्रमका अभिमान और आग्रह छोड़कर बाहरसे वर्ण-आश्रमकी मर्यादाका पालन करना और भीतरसे ‘मैं तो केवल भगवान्का हूँ, किसी वर्ण-आश्रमका नहीं हूँ’‒ऐसा भाव रखना बहुत आवश्यक है ।
जब साधकका उद्देश्य एकमात्र परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेका हो जाता है, तब वह अपनेको केवल योगी, केवल जिज्ञासु अथवा केवल भक्त मानता है । ऐसा माननेसे ही वह सच्चा साधक होता है और उसके द्वारा निरन्तर साधन होता है । अगर वह अपनेको साधक माननेके साथ-साथ ‘मैं ब्राह्मण हूँ, मैं शूद्र हूँ, मैं गृहस्थ हूँ, मैं संन्यासी हूँ, मैं स्त्री हूँ,मैं पुरुष हूँ, मैं बालक हूँ, मैं वृद्ध हूँ, मैं रोगी हूँ, मैं नीरोग हूँ’आदि भी मानेगा तो उसके साधनमें अदृढ़ता (कमी) रहेगी, जो कि उसके कल्याणमें बाधक होगी । उसको चाहिये कि वह अपने साधनमें इतना तल्लीन हो जाय कि साधक न रहे, साधनमात्र रह जाय अर्थात् योगी न रहे, योगमात्र रह जाय; जिज्ञासु न रहे, जिज्ञासामात्र रह जाय; भक्त न रहे, भक्तिमात्र रह जाय । साधनमात्र रहते ही साधन साध्यसे एक हो जाता है अर्थात् साध्य-तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
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