।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
साधकका कर्तव्य


साधकका मुख्य कर्तव्य है‒साधनविरुद्ध कार्य न करना अर्थात् जो कार्य परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें बाधक होउसका त्याग करना । साधनविरुद्ध कार्यका त्याग करनेपर साधन करना नहीं पड़ताप्रत्युत स्वत: होता है । स्वत: होनेवाले साधनमें कर्तृत्वाभिमान (करनेका अभिमान) नहीं आता । वास्तवमें साधन स्वतःसिद्ध है । साधनविरुद्ध कार्य तो हमने पकड़ा है । जैसेबालक स्वत: सत्य बोलता हैपर जब वह झूठको स्वीकार कर लेता है अर्थात् झूठ बोलना सीख जाता हैतब उसको सत्य बोलनेके लिये उद्योग करना पड़ता है ।उद्योगसे किये गये साधनसे कर्तृत्वाभिमान पैदा होता है ।तात्पर्य है कि जैसे साध्य (परमात्मा) अविनाशी हैऐसे ही साधन भी अविनाशी है* । परन्तु जब साधक साधनको अविनाशी न मानकर कृतिसाध्य (अपने उद्योगसे किया गया) मान लेता हैतब उसमें कर्तृत्वाभिमान आ जाता है ।

जो अपना नहीं हैप्रत्युत मिला हुआ है और बिछुड़ जायगाउसको अपना मानना और जो अनादिकालसे स्वत: अपना हैउसको अपना न मानना साधनविरुद्ध कार्य है ।अत: साधनविरुद्ध कार्यके त्यागका तात्पर्य है‒जो मिला है,उसको अपना नहीं मानना । कारण कि जो मिला हैवह बिछुड़ेगा‒यह नियम है । इसलिये मिले हुएको अपना न मानकरप्रत्युत संसारका ही मानकर उसका सदुपयोग करना है ।

साधकको जो देशकालवस्तुव्यक्तिपरिस्थिति आदि मिली हैउसका सदुपयोग करना चाहिये । सदुपयोग करनेका तात्पर्य है‒प्राप्त वस्तु आदिको अपनी न मानकर,प्रत्युत अभावग्रस्तोंकी ही मानकर नि:स्वार्थभावसे उनकी सेवामें लगा देना । यह ‘कर्मयोग’ है ।

साधकको अपनी जानकारीका आदर करना चाहिये,उसको महत्व देना चाहिये । अपनी जानकारीको महत्त्व देनेका तात्पर्य है‒अपने विवेकसे जैसा जाना हैवैसा मान लेना और वैसा ही आचरण करना । जैसे किसी भी वस्तु,व्यक्तिपरिस्थिति आदिके साथ हमारा सम्बन्ध था नहीं,होगा नहींहो सकता नहीं और वर्तमानमें भी उससे निरन्तर सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है‒इस प्रकार साधक अपनेको असंग स्वीकार करे । यह ‘ज्ञानयोग’ है ।

साधकको एकमात्र भगवान्‌पर ही विश्वास करना चाहिये । विश्वास करनेका तात्पर्य है‒भगवान्‌के सिवाय दूसरी चीजको भूलकर भी अपना न मानना और उसपर विश्वासभरोसा न करना । यह ‘भक्तियोग’ है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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* इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् । (गीता ४ । १)

       ‘इस अविनाशी योगको मैंने सूर्यसे कहा था ।’यहाँ भगवान्‌ने योग (साधन) को अविनाशी कहा है ।
         एक भरोसो एक बल       एक आस बिस्वास ।
             एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥
                                                             (दोहावली २७७)