(शेष आगेके ब्लॉगमें)
साधकको इस बातकी सावधानी रखनी चाहिये कि उसके द्वारा कोई साधनविरुद्ध काम न हो । साधनविरुद्ध काम न करनेसे साधककी स्वत: उन्नति होती है और साधनविरुद्ध काम करनेसे साधकका स्वत: पतन होता है । तात्पर्य है कि मनुष्यमें क्रियाका एक वेग रहता है । यदि उसके द्वारा उन्नतिकी क्रिया नहीं होगी तो फिर पतनकी क्रिया होगी । कारण कि स्थिर न रहना, प्रतिक्षण बदलना संसारका स्वभाव है । अत: साधक या तो उन्नतिमें जायगा या पतनमें जायगा । इसलिये साधक किसी भी जाति, वर्ण,आश्रम, मत, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो, उसको साधनविरुद्ध कार्यका त्याग करना ही पड़ेगा* अर्थात् प्राप्त वस्तुका दुरुपयोग, अपनी जानकारीका अनादर और संसारपर विश्वास‒इन तीनोंका त्याग करना ही पड़ेगा । साधनविरुद्ध कार्यके त्यागमें ही उसके साधनकी पूर्णता है ।
प्रश्न‒साधनविरुद्ध कार्यके मूलमें क्या है ?
उत्तर‒साधनविरुद्ध कार्यके मूलमें सुखभोगकी आसक्ति है । परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें सुखासक्ति बहुत बाधक है । सुखासक्ति अधिक होनेसे उसका त्याग कठिन, असम्भव दीखता है । परन्तु साधक इस सुखासक्तिके त्यागमें स्वतन्त्र है और विचारपूर्वक इसका त्याग कर सकता है । वह विचार करे कि मुझे वह सुख लेना है, जिसमें कोई कमी न हो तथा जो कभी नष्ट न हो‒
यं लख्या चापरं लाभ मन्यते नाधिक तत: ।
यस्मिन्स्थितो न दुःखेन गुरुणापि विचाल्यते ॥
तं विद्याद्दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम् ।
(गीता ६ । २२ - २३)
‘जिस लाभकी प्राप्ति होनेपर उससे अधिक कोई दूसरा लाभ उसके माननेमें भी नहीं आता और जिसमें स्थित होनेपर वह बड़े भारी दुःखसे भी विचलित नहीं किया जा सकता ।’
‘जिसमें दुःखोंके संयोगका ही वियोग है उसीको‘योग’ नामसे जानना चाहिये ।’
मनुष्यमें विचारकी जितनी शक्ति है, उतनी देवताओंमें भी नहीं है । वह विचार नहीं करता तो यह उसका प्रमाद है, असावधानी है ।
सुखभोगसे भोग्य वस्तुका नाश और अपना पतन होता है‒यह नियम है । जैसे, रागपूर्वक धनका भोग करते हैं तो धनका नाश और अपना पतन करते हैं । अपनेमें धनका महत्व, कामना, लोभ, आसक्ति, जड़ता, गुलामी आदि आना ही अपना पतन है । रागपूर्वक भोजन करते हैं तो अन्नका नाश और अपना पतन करते हैं । अपनेमें भोजनकी आसक्ति बढ़ना ही अपना पतन है ।
सांसारिक सुखभोगका तो कहना ही क्या है,साधनजन्य सुखका भोग करनेसे भी साधकका पतन हो जाता है ! जैसे, त्यागसे जो शान्ति मिलती है, उस शान्तिका उपभोग करनेसे वह त्याग नहीं रहता और साधकका पतन हो जाता है । कारण कि साधनजन्य सुखके भोगसे मरा हुआ अहंकार भी जीवित हो जाता है अर्थात् व्यक्तित्व जाग्रत् हो जाता है और दृढ़ हो जाता है जो कि महान् अनर्थका, जन्म-मरणका हेतु है । जबतक अपनेमें अच्छेपनका भाव रहता है अपनेमें कोई विशेषता दीखती है, तबतक व्यक्तित्व नष्ट नहीं होता अर्थात् अपनेमें एकदेशीयपना रहता है । अत: साधनमें ऊँची स्थिति होनेपर भी तथा अपनेमें जीवन्मुक्त या गुणातीत-अवस्थाकी मान्यता होनेपर भी उसका सुख नहीं भोगना चाहिये । इस विषयमें साधकको बहुत सावधान रहनेकी आवश्यकता है ।
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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* न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥
(गीता ६ । २)
‘संकल्पोंका त्याग किये बिना मनुष्य कोई-सा भी योगी नहीं हो सकता ।’
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