।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७०, सोमवार
विवेककी जागृति
  

मानव-शरीरकी महिमा विवेकके कारण ही है । विवेक प्राणिमात्रमें हैपरन्तु जिससे परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर सकेंऐसा (सत्-असत्कर्तव्य-अकर्तव्यका) विवेक मनुष्यमें ही है । यह विवेक कर्मोंका फल नहीं हैप्रत्युत भगवत्प्रदत्त है । यह बुद्धिमें आता हैबुद्धिका गुण नहीं है ।अत: बुद्धि तो कर्मानुसारिणी होती हैपर विवेक कर्मानुसारी नहीं होता । अगर विवेकको पुण्य-कर्मोंका फल मानें तो यह शंका पैदा होगी कि बिना विवेकके पुण्यकर्म कैसे हुए ?कारण कि ये पुण्यकर्म हैं और ये पापकर्म हैं‒ऐसा विवेक पहले होनेपर ही मनुष्य पापोंका त्याग करके पुण्यकर्म करता है । अत: विवेक पुण्यकर्मोंका फल नहीं हैप्रत्युत यह पुण्यकर्मोंका कारण और अनादि है । लौकिक पदार्थोंकी प्राप्ति तो क्रियासे होती हैपर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति विवेकसे होती है । मुक्त करनेकी शक्ति विवेकमें हैक्रियामें नहीं । अगर मनुष्यमें विवेककी प्रधानता हो तो वह प्रत्येक देशमेंप्रत्येक कालमेंप्रत्येक अवस्थामेंप्रत्येक परिस्थितिमें परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति कर सकता है । कारण कि परमात्मतत्त्वसे कभी किसीका वियोग नहीं है । अत:मनुष्यका खास काम है‒प्राप्त विवेकका आदर करनाउसको महत्व देना । विवेकका आदर करनेसे वह विवेक ही बढ़कर तत्त्वबोधमें परिणत हो जाता है ।

प्रश्न‒अन्तःकरणको शुद्ध किये बिना विवेकका आदर कैसे होगा ?

उत्तर‒विवेक अन्तःकरणकी शुद्धिके आश्रित नहीं है,प्रत्युत अन्तःकरणकी शुद्धि विवेकके आश्रित है । विवेक अनादि तथा अनन्त है और अन्तःकरणकी अशुद्धि सादि और सान्त है । विवेक असीम है और अशुद्धि सीमित है । विवेक स्वतःसिद्ध हैअशुद्धि स्वत: सिद्ध नहीं है । विवेक नित्य है,अशुद्धि अनित्य है । नित्यको अनित्य कैसे ढक सकता है ?जड़ताका महत्त्व ही अन्तःकरणको अशुद्ध करनेवाली चीज है । अत: विवेकको महत्त्व देनेसे अन्तःकरण स्वत: शुद्ध हो जाता है ।

शुद्ध करनेसे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता । कारण कि शुद्ध करनेसे अन्तःकरणके साथ सम्बन्ध बना रहता है ।जबतक ‘मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय’यह भाव रहेगा,तबतक अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं हो सकतीक्योंकि ममता ही अशुद्धिका कारण है‒‘ममता मल जरि जाई’ (मानस ७ । ११७ क) । इसलिये गीताने अन्तःकरणके साथ ममता न रखनेकी बात कही हैजैसे‒
कायेन   मनसा   बुद्ध्या   केवलैरिन्द्रियैरपि ।
योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥
                                                          (५ । ११)
‘कर्मयोगी आसक्तिका त्याग करके अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये केवल अर्थात् ममतारहित इन्द्रियाँ-शरीर-मन-बुद्धिके द्वारा कर्म करते हैं ।’ कारण कि ममता-आसक्ति रखनेसे कर्म होते हैंकर्मयोग नहीं होता ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे