।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
विवेककी जागृति
  

(गत ब्लॉगसे आगेका)
विवेकके बिना केवल क्रियासे अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं होती* । शक्ति विवेकमें है, क्रियामें नहीं । क्रिया करनेमें करणकी मुख्यता रहेगी तो करणका आदर होगा । करणका आदर (महत्त्व) ही अन्तःकरणकी अशुद्धि है ।

अन्तःकरणकी अशुद्धि वास्तवमें कर्ताकी अशुद्धि है;क्योंकि कर्ताका दोष ही करणमें आता है । जैसेमनुष्य चोरी करनेसे चोर नहीं बनताप्रत्युत चोर बनकर चोरी करता है । चोरी करनेसे उसका चोरपना दृढ़ होता है । अगर कर्ताकी नीयत शुद्ध हो तो वह चोरी नहीं कर सकता । अत: करणको शुद्ध करनेकी उतनी आवश्यकता नहीं हैजितनी कर्ताको शुद्ध होनेकी आवश्यकता है । अगर करणको शुद्ध करेंगे तो परिणाममें क्रिया शुद्ध होगीकर्ता कैसे शुद्ध होगा जैसे,कलम बढ़िया होगी तो लेखन-कार्य बढ़िया होगालेखक कैसे बढ़िया हो जायगा कर्ता शुद्ध होता है‒अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर और अन्तःकरणसे सम्बन्ध-विच्छेद होता है-विवेकका आदर करनेसे ।

एक मार्मिक बात है कि अन्तःकरण अशुद्ध होनेपर भी विवेक जाग्रत् हो सकता है । इसीलिये गीतामें आया है कि पापी-से-पापी और दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी ज्ञान और भक्ति प्राप्त कर सकता है । तात्पर्य है कि अपने कल्याणका दृढ़ उद्देश्य हो जाय तो पूर्वकृत पाप विवेककी जागृतिमें बाधक नहीं हो सकते । पाप तभी बाधक हो सकते हैंजब विवेक कर्मोंका फल हो । परन्तु विवेक कर्मोंका फल है ही नहीं । कर्मोंके साथ विवेकका सम्बन्ध है ही नहीं । अत: विवेकका पापोंसे विरोध नहीं है । इसलिये साधकको चाहिये कि वह अपने विवेकको जाग्रत् करे ।

प्रश्न‒विवेक कैसे जाग्रत् होता है ?

उत्तर‒विवेक दो चीजोंसे जाग्रत् होता है‒सत्संगसेऔर दुःख (आफत) से । सत्संग परमात्मामें लगाता है और दुःख संसारसे हटाता है । परमात्मामें लगना भी योग है‘समत्वं योग उच्यते’ (गीता २ । ४८) और संसारसे हटना भी योग है ‘तं विद्याद् दु:खसंयोगवियोगं योग सञ्ज्ञितम्’ (गीता ६ । २३) ।

रामचरितमानसमें आया है‒‘बिनु सतसंग बिबेक न होई’ (१ । ३ । ४) । इसका तात्पर्य यह है कि सत्संगके बिना विवेक जाग्रत् नहीं होता । सत्संगसे बहुत विलक्षण लाभ होता है और स्वाभाविक शुद्धि होती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)     
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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         *   अन्तःकरणकी शुद्धि क्रियासे नहीं होती, प्रत्युत भाव और विवेकसे होती है । इसलिये कर्मयोगमें निष्कामभावसे, ज्ञानयोगमें विवेकसे और भक्तियोगमें प्रेमभावसे अन्तःकरण स्वत: शुद्ध हो जाता है । सकामभावसे की गयी क्रियासे भी अन्तःकरणमें एक तरहकी शुद्धि आती है, पर वह शुद्धि उस क्रियाका फल भोगनेमें ही काम आती है, पारमार्थिक उन्नतिमें काम नहीं आती ।
† अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
    सर्वं  ज्ञानप्लवेनैव   वृजिनं  सन्तरिष्यसि ॥
                                                   (गीता ४ । ३६)

      अपि चेत्सुदुराचारो    भजते मामनन्यभाक् ।
      साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥
                                                            (गीता ९ । ३०)

 ‡ सच्छास्त्रोंका अध्ययन करना भी सत्संग है ।