।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
पौष शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
विवेककी जागृति
  

(गत ब्लॉगसे आगेका)
सतां प्रसंगान्मम वीर्यसंविदो
                  भवन्ति हृत्कर्णरसायनाः कथा: ।
तज्जोषणादाश्वपवर्गवर्त्मनि
                 श्रद्धा    रतिर्भक्तिरनुक्रमिष्यति ॥
                                        (श्रीमद्भा ३ । २५ । २५)
‘संतोंके संगसे मेरे पराक्रमोंका यथार्थ ज्ञान करानेवाली तथा हृदय और कानोंको प्रिय लगनेवाली कथाएँ होती हैं । उनका सेवन करनेसे शीघ्र ही मोक्षमार्गमें श्रद्धा,प्रेम और भक्तिका क्रमश: विकास होगा ।’

बिनुसतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग ।
मोह गएँ बिनु राम पद      होइ न दृढ़ अनुराग ॥
                                                    (मानस ७ । ६१)

केवल सत्संगसेसन्तोंकी आज्ञाका पालन करनेसे साधकको परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है‒

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते ।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणाः ॥
                                                  (गीता १३ । २५)

 ‘दूसरे जो मनुष्य इस प्रकार ध्यानयोगज्ञानयोग आदि साधनोंको नहीं जानतेप्रत्युत केवल जीवन्मुक्त महात्माओंसे सुनकर उपासना करते हैं अर्थात् उनके वचनोंको महत्त्व देते हैं तथा उसके अनुसार अपना जीवन बनाते हैंऐसे वे सुननेके परायण मनुष्य भी मृत्युको तर जाते हैं ।’

अत: जहाँतक बनेसाधकको सत्संग नहीं छोड़ना चाहिये और कुसंगसे बचना चाहिये । सत्संगसे जितना लाभ होता हैउतनी ही कुसंगसे हानि होती है । परन्तु दोनोंमें फर्क है । कुसंगसे होनेवाली हानि तो फल देकर नष्ट हो जाती है, पर सत्संगसे होनेवाला लाभ (विवेक) फल देकर नष्ट नहीं होताक्योंकि यह सत् है और सत् कभी मिटता नहीं‒‘नाभावो विद्यते सत:’ (गीता २ । १६) 

संसारकी एक चाल है कि वह विश्वासघात करता ही है । वास्तवमें उससे विश्वासघात होता हैवह करता नहीं । कारण कि जीव संसारको सुखदायी समझकर उसकी तरफ आकृष्ट होता हैपर वह दुःखदायी सिद्ध होता है ! इस प्रकार जब विश्वासघात होता हैतब हृदयमें एक रेख आती है कि ‘संसारमें मेरा कोई नहीं’ यह रेख ही मनुष्यको साधनमें लगा देती हैउसका विवेक जाग्रत् करा देती है ।

दुःख आनेपर भी यदि सुखकी इच्छा रहेगी तो विवेक जाग्रत् नहीं होगाक्योंकि सुखकी इच्छा महान् दोषी है ।सुखके द्वारा दुःख दूर करनेकी इच्छा होनेपर दुःखकी वृद्धि ही होती है । कारण कि वास्तवमें सुखकी इच्छा ही सम्पूर्ण दुःखोंका कारण है । अत: दुःख आनेपर सुखकी इच्छाका त्याग करना चाहिये और दुःखके कारणकी खोज करनी चाहिये । सुखकी इच्छाका त्याग करनेपर और दुःखके कारणकी खोज करनेपर विवेक जाग्रत् हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे