।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
मुक्तिमें सबका समान अधिकार


(गत ब्लॉगसे आगेका)
विष्णुपुराणमें एक कथा आती है । एक बार अनेक ऋषि मिलकर श्रेष्ठताका निर्णय करनेके लिये वेदव्यासजी महाराजके पास गये । वेदव्यासजीने आदर-सत्कारपूर्वक उन सबको बैठाया और स्वयं गंगामें स्नान करने चले गये । स्नान करते हुए उन्होंने कहा कि ‘कलियुगतुम धन्य हो ! शूद्रों,तुम धन्य हो ! स्त्रियोंतुम धन्य हो !’* जब वे स्नान करके वापिस आयेतब ऋषियोंने उनसे कहा कि महाराज ! आपने कलियुगकोशूद्रोंको और स्त्रियोंको धन्यवाद क्यों दिया ?‒यह हमारी समझमें नहीं आया ! वेदव्यासजीने कहा किकलियुगमें अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे शूद्रों और स्त्रियोंका कल्याण जल्दी और सुगमतासे हो जाता हैइसलिये ये तीनों धन्यवादके पात्र हैं ।
जो वर्ण-आश्रममें जितना ऊँचा होता है, उसके लिये धर्म-पालन भी उतना ही कठिन होता है और नीचे गिरनेपर चोट भी उतनी ही अधिक लगती है ! ऊँचा कहलानेके कारण देहाभिमान भी अधिक होता हैअतः कल्याण भी कठिनतासे होता है ‒

नीच नीच सब तर गयेराम भजन लवलीन ।
जातिके अभिमान से,       डूबे सभी कुलीन ॥
जात नहीं जगदीश के,      जन के कैसे होय ।
जात पाँत कुल कीच में,  बंध मरो मत कोय ॥

तात्पर्य यह हुआ कि लौकिक व्यवहार (भोजन,विवाह आदि) में तो जातिकीवर्ण-आश्रमकी ही प्रधानता है,पर भगवत्प्राप्तिमें भाव और विवेककी प्रधानता है । अतः ऊँचे वर्णआश्रम आदिसे संसारमें अधिकार मिल सकता है,पर भगवान्‌को प्राप्त करनेका अधिकार केवल भगवान्‌के सम्बन्धसे ही मिलता है । जैसे सब-के-सब बालक माँकी गोदीमें जानेके समान अधिकारी हैंऐसे ही भगवान्‌का अंश होनेसे सब-के-सब जीव भगवान्‌को प्राप्त होनेके समान अधिकारी हैं । जीव-मात्रका भगवान्‌पर पूरा अधिकार है ।अतः भगवत्प्राप्तिके लिये किसी भी मनुष्यको कभी निराश नहीं होना चाहिये । सब-के-सब मनुष्य परमात्मतत्त्वको,मुक्तिकोतत्त्वज्ञानकोकैवल्यकोभगवत्प्रेमको,भगवद्दर्शनको* प्राप्त कर सकते हैं ।

यहाँ ‘वज्रसूची’ नामक उपनिषद् दी जा रही है । मुक्तिक-उपनिषद्‌में जहाँ एक सौ आठ उपनिषदोंके नाम दिये गये हैंवहाँ इस उपनिषद्‌का भी नाम आया है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)     
 ‒‘तत्त्वज्ञान कैसे हो ?’ पुस्तकसे
_______________
      * भगवान्‌को अपना माननेका सबको अधिकार है । अनन्यभावसे भगवान्‌को अपना माननेसे भगवान्‌में प्रेम हो जाता है ।

 ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरिः ।
ऐतरेयं च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा ॥
ब्रह्मकैवल्यजाबालश्वेताश्वो हंस आरुणिः ।
गर्भो नारायणो हंसो बिन्दुर्नादशिरः शिखा ॥
मैत्रायणी कौषीतकी बृहज्जाबालतापनी ।
कालाग्रिरुद्रमैत्रेयी सुबालक्षुरिमन्त्रिका ॥
सर्वसारं निरालम्बं रहस्यं वज्रसूचिकम् ।
तेजोनादध्यानविद्यायोगतत्त्वात्मबोधकम् ॥
परिव्राट् त्रिशिखी सीता चूडा निर्वाणमण्डलम् ।
दक्षिणा शरभं स्कन्दं महानारायणाद्वयम् ॥
रहस्यं रामतपनं वासुदेवं च मुद्गलम् ।
शाण्डिल्यं पैङ्गलं भिक्षुमहच्छारीरकं शिखा ॥
तुरीयातीतसंन्यासपरिव्राजाक्षमालिका ।
अव्यक्तैकाक्षरं पूर्णा सूर्याक्ष्यध्यात्मकुण्डिका ॥
सावित्र्यात्मा पाशुपतं परं ब्रह्मावधूतकम् ॥
त्रिपुरातपनं देवी त्रिपुरा कठभावना ।
हृदयं कुण्डली भस्म रुद्राक्षगणदर्शनम् ॥
तारसारमहावाक्यपञ्चब्रह्माग्निहोत्रकम् ।
गोपालतपनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम् ॥
शाट्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम् ।
कलिजाबालिसौभाग्यरहस्यऋचमुक्तिका ॥
एवमष्टोत्तरशतं भावनात्रयनाशनम् ।
ज्ञानवैराग्यदं पुंसां वासनात्रयनाशनम् ॥
                                                                                   (मुक्तिकोपनिषद्)
‘१ ईश२ केन३. कठ४. प्रश्न५. मुण्डक६. माण्डूक्य७. तैत्तिरीय,८. ऐतरेय९. छान्दोग्य१०. बृहदारण्यक११ ब्रह्म१२. कैवल्य१३. जाबाल१४. श्वेताश्वतर१५. हंस१६. आरुणिक१७. गर्भ१८. नारायण१९. परमहंस२०. अमृतबिन्दु२१ अमृतनाद२२ अथर्वशिरस्२३. अथर्वशिखा२४. मैत्रायणी२५. कौषीतकिब्राह्मण,२६. बृहज्जाबाल२७. नृसिंहतापनीय२८. कालाग्निरुद्र२९. मैत्रेयी,३०. सुबाल३१ क्षुरिका३२. मन्त्रिका३३. सर्वसार३४. निरालम्ब,३५. शुकरहस्य३६. वज्रसूचिका३७. तेजोबिन्दु३८. नादबिन्दु३९. ध्यानबिन्दु४० ब्रह्मविद्या४१. योगतत्त्व४२. आत्मप्रबोध४३. नारदपरिव्राजक४४. त्रिशिखिब्राह्मण४५. सीता४६. योगचूड़ामणि,४७. निर्वाण४८. मण्डलब्राह्मण४९. दक्षिणामूर्ति५०. शरभ५१ स्कन्द५२ त्रिपाद्विभूतिमहानारायण५३. अद्वयतारक५४. रामरहस्य,५५. रामतापनीय५६. वासुदेव५७. मुद्गल५८. शाण्डिल्य५९. पैंगल६० भिक्षुक६१ महत्६२. शारीरक६३ योगशिखा६४. तुरीयातीत६५. संन्यास६६. परमहंसपरिव्राजक६७. अक्षमाला६८. अव्यक्त६९. एकाक्षर७०. अन्नपूर्णा७१ सूर्य७२. अक्षि७३ अध्यात्म७४. कुण्डिका७५. सावित्री७६. आत्मा७७. पाशुपत७८. परब्रह्म७९. अवधूत८०. त्रिपुरातापनीय८१. देवी८२. त्रिपुरा,८३. कठरुद्र८४. भावना८५. रुद्रहृदय८६. योगकुण्डली८७. भस्मजाबाल८८. रुद्राक्षजाबाल८९. गणपति९० जाबालदर्शन११. तारसार१२. महावाक्य९३. पहब्रह्म९४. प्राणाग्निहोत्र९५. गोपालतापनीय९६. कृष्ण९७. याज्ञवल्क्य९८. वराह९९. शाट्‌यायनीय१००. हयग्रीव१०१ दत्तात्रेय१०२. गरुड़ १०३. कलिसंतरण१०४. जाबालि१०५. सौभाग्यलक्ष्मी१०६. सरस्वतीरहस्य१०७. बह्वृच१०८. मुक्तिकोपनिषद्‒ये एक सौ आठ उपनिषदें मनुष्यके आधिदैविकआधिभौतिक और आध्यात्मिक‒तीनों तापोंका नाश करती हैं । इनके पाठ और स्वाध्यायसे ज्ञान और वैराग्यकी प्राप्ति होती है तथा लोकवासनाशास्त्रवासना एवं देहवासनारूप त्रिविध वासनाओंका नाश होता है ।’