साधकोंके सामने प्राय: यह समस्या आती है कि हम जप करते हैं, पाठ करते हैं, सत्संग करते हैं, विचार करते हैं,चिन्तन करते हैं, ध्यान करते हैं, तीर्थ-व्रतादिक करते हैं, फिर भी तत्त्वका अनुभव नहीं हो रहा है, वास्तविक स्थिति नहीं हो रही है, क्या कारण है ? कहीं और क्या बाधा लग रही है? इस समस्याका मूल कारण है‒संयोगजन्य सुखकी लोलुपता । विनाशी वस्तुके सम्बन्धसे होनेवाला जो सुख है,उस सुखकी जो लोलुपता है, भीतरमें जो इच्छा है कि यह सुख मिले, यह सुख बना रहे, यह सुख बढ़ता रहे‒यही खास बाधा है । इसीके कारण वास्तविक स्थितिका अनुभव नहीं हो रहा है ।
सुखका आना खराब नहीं है, प्रत्युत सुखका भोग और उसकी इच्छा खराब है । यह सुखकी इच्छा बहुत दूरतक साधकके लिये बाधक होती है । जहाँ उसने सुख भोगा, वहीं बाधा लग जायगी ! संयोगजन्य सुखसे अतीत जो समताका,शान्तिका सुख है, उसका भी यदि साधक भोग करेगा तो वह आंशिक समता, शान्ति भी स्थायी नहीं रहेगी, प्रत्युत आती-जाती रहेगी । कारण कि साधनजन्य सात्त्विक सुखका भोग भी बाँधनेवाला है‒‘सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानध’(गीता १४ । ६) । साधनजन्य सुखका ज्ञान बाँधनेवाला नहीं होता, प्रत्युत उसका भोग बाँधनेवाला होता है । साधनजन्य सुखमें राजी होना, उसके कारण अपनेमें दूसरोंकी अपेक्षा विशेषता देखना भोग है । यह सिद्धान्त है कि हम जिस चीजका भोग करते हैं, वह चीज नष्ट हो जाती है और हमारा पतन होता है; जैसे‒धनका भोग करनेसे धन नष्ट (खर्च) हो जाता है और हमारा पतन होता है अर्थात् आदत बिगड़ती है ।
संसारमें सुख भी आता है और दुःख भी; क्योंकि सुख-दुःख, अनुकूलता-प्रतिकूलता संसारका स्वरूप है । परंतु हमें न सुखका भोग करना है, न दुःखका । कारण कि सुखी होना भी बन्धन है और दुःखी होना भी बन्धन है । अगर सुखी-दुःखी होना ही हो तो सुखमें भी सुखी हों और दुःखमें भी सुखी हों तो ठीक हो जायगा अथवा सुखमें भी दुःखी हों और दुःखमें भी दुःखी हों तो ठीक हो जायगा । सुखमें भी सुखी और दुःखमें भी सुखी होनेका तात्पर्य है कि चाहे सुख आये,चाहे दुःख आये, दोनोंसे अपना कोई मतलब न रखें, उनसे निर्लिप्त रहें । सुखमें भी दुःखी और दुःखमें भी दुःखी होनेका तात्पर्य है कि सुखमें सुखी हो जानेपर यह दुःख हो जाय कि मैं सुखी क्यों हो गया अर्थात् मेरेपर सुखका असर क्यों हो गया ? और दुःखमें दुःखी हो जानेपर यह दुःख हो जाय कि मैं दुःखी क्यों हो गया ? तात्पर्य है कि जिस किसी तरह अपनेमें समता और निर्लिप्तता आनी चाहिये ।
वास्तवमें भोग ही योगमें बाधक है । अत: न तो सुखका भोग करना है और न दुःखका ही भोग करना है । जब हम सुख और दुःख दोनोंमें सम रहेंगे, प्रसन्न रहेंगे, तब सुख-दुःखका भोग नहीं होगा । अत: जैसे सुख आनेपर प्रसन्नता होती है, ऐसे ही दुःख आनेपर भी प्रसन्नता होनी चाहिये ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जिन खोजा तिन पाइया’ पुस्तकसे
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