।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
श्रीभीष्मद्वादशी
भक्ति और उसकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌के द्वारा अपनेको ऋणी कहनेका तात्पर्य है कि तुमलोगोंका मेरे प्रति जैसा प्रेम हैवैसा मेरा तुम्हारे प्रति नहीं है । कारण कि मेरेको छोड़कर तुम्हारा और किसीमें किंचिन्मात्र भी प्रेम नहीं हैपर मेरा अनेक भक्तोंमें प्रेम है ! अत: मैं तुम्हारे साथ बराबरी नहीं कर सकता । जैसे तुम मेरे सिवाय किसीको नहीं मानतींऐसे ही मैं भी तुम्हारे सिवाय किसीको न मानूँतभी बराबरी हो सकती है ! परन्तु मेरे तो अनेक भक्त हैंजिनको मैं मानता हूँ । इसलिये मैं तुम्हारा ऋणी हूँ !

यहि दरबार दीनको आदररीति सदा चलि आई ॥
                                                 (विनयपत्रिका १६५ । ५)

जो दीन होते हैंछोटे होते हैंशरणागत होते हैं,केवल भगवान्‌के परायण होते हैंउनका आदर भगवान्‌के यहाँ होता है । जो भगवान्‌से प्रेम करते-करते अघाते नहीं,भगवान् उनके वशीभूत हो जाते हैं और चाहे जो कर देते हैं । प्रेमके वशमें होकर वे सारथि बनकर घोड़े हाँकते हैंजूठी पत्तलें उठाते हैं और उसमें राजी होते हैं । जैसे माँको बालकका मल-मूत्र उठानेमें भी आनन्द आता हैऐसे ही भगवान्‌को भक्तोंका छोटे-से-छोटा काम करनेमें भी आनन्द आता है । माँमें तो स्वार्थ और ममता होती है, पर भगवान्‌में न स्वार्थ हैन ममता हैप्रत्युत केवल प्रेम है । जो छोटे आदमी होते हैंवे तो बड़ा बनना चाहते हैं कि हम इतने बड़े हो जायँ । परन्तु भगवान् सबसे बड़े ठहरेअत: उनको छोटा बननेमें आनन्द आता है‒
मैं तो हूँ भगतनको दासभगत मेरे मुकुटमणि ।

इसलिये भगवान् भक्तोंकी महिमा गाते हुए तृप्त नहीं होते । यह भक्तिकी महिमा है ! वह भक्ति दो प्रकारकी होती है‒साधनभक्ति और साध्यभक्ति । साधनभक्तिसे साध्यभक्ति प्राप्त होती है‒‘भक्त्या संजातया भक्त्या’ (श्रीमद्भा ११ । ३ । ३१) । साधनभक्तिके नौ प्रकार हैं‒
श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।
अर्चनं वन्दनं दास्यं  सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
                                                                (श्रीमद्भा ७ । ५ । २३)
‘श्रवणकीर्तनस्मरणपादसेवनअर्चनवन्दन,दास्यसख्य और आत्मसमर्पण‒यह नवधा भक्ति है ।’ इसके तीन-तीन प्रकारके भेद हैं । श्रवणकीर्तन और स्मरण‒इन तीनोंमें भक्त अपनेको भगवान्‌से दूर समझता है । पादसेवन,अर्चन और वन्दन‒इन तीनोंमें भक्त भगवान्‌को नजदीक समझता है । दास्यसख्य और आत्मसमर्पण‒इन तीन भावोंमें भक्त भगवान्‌को बहुत नजदीक समझता है । इस प्रकार श्रवणसे लेकर आत्मसमर्पणतक भक्त क्रमश: अपनेको भगवान्‌के नजदीक मानता है । आत्मसमर्पणमें भक्त सर्वथा भगवान्‌में तल्लीन हो जाता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे