।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


१.    गीतामें समग्र ( सगुण) की मुख्यता

श्रीमद्भगवद्गीतामें भगवान् कहते हैं‒
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको    योगी   तस्माद्योगी   भवार्जुन ॥
                                                                                   (६ । ४६)
‘तपस्वियोंसे भी योगी श्रेष्ठ हैज्ञानियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है और कर्मियोंसे भी योगी श्रेष्ठ है‒ऐसा मेरा मत है । अत: हे अर्जुन! तू योगी हो जा ।’

इस प्रकार योगकी महिमा बताकर फिर भगवान् कहते हैं‒
योगिनामपि सर्वेषां     मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मत: ॥
                                                                        (६ । ४७)
‘सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे (प्रेमपूर्वक) मेरा भजन करता हैवह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है* ।’

तात्पर्य है कि कर्मयोगीज्ञानयोगीहठयोगी,लययोगीराजयोगीमन्त्रयोगी आदि जितने भी योगी हो सकते हैंउन सब योगियोंमें मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ है । जैसे भगवान्‌की बात चले तो भक्त उसीमें मस्त हो जाता है,उसको दूसरी बात सुहाती ही नहींऐसे ही यहाँ भक्तकी बात चली तो भगवान् भी मस्त हो गयेदूसरी सब बातें भूल गये और उनके भीतर भक्तिकी बात कहनेका प्रवाह उमड़ पड़ा । अत: अर्जुनके द्वारा प्रश्र किये बिना ही भगवान्‌ने अपनी तरफसे सातवाँ अध्याय शुरू कर दिया ।

सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्‌ने अर्जुनसे कहा कि मैं वह विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगाजिससे तू मेरे ‘समग्र’रूपको जान जायगाजिसको जाननेके बाद फिर कुछ भी जानना बाकी नहीं रहेगा । अन्तमें अपने समग्ररूपका वर्णन करते हुए भगवान्‌ने कहा‒
जरामरणमोक्षाय      मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ॥
साधिभूताधिदैवं मां     साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां       ते विदुर्युक्तचेतसः ॥
                                                                                    (७ । २९- ३०)
‘जरा और मरणसे मोक्ष पानेके लिये जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैंवे उस ब्रह्मकोसम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको भी जान जाते हैं । जो मनुष्य अधिभूत,अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैंवे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते अर्थात् प्राप्त होते हैं ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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* अपने भक्तके विषयमें ऐसी बात भगवान्‌ने आगे भी कही है;जैसे‒
(१) मय्यासक्तमना: पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रय: । (७ । १)
(२) जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यजन्ति ये । (७ । २९)
(३) मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते ।
      श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मता: ॥  (१२ । २)
(४)  ये   तु  धर्म्यामृतमिदं   यथोक्तं   पर्युपासते ।
      श्रद्दधाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रिया: ॥  (१२ । २०)