।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण प्रतिपदा, वि.सं.–२०७०, शनिवार
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
देहके साथ माना हुआ सम्बन्ध ही जीव और ब्रह्मकी एकतामें खास बाधक है । इसलिये देहाभिमानीके लिये निर्गुणोपासनाकी सिद्धि कठिनतासे तथा देरीसे होती है‒‘अव्यक्ता हि गतिर्दु:खं देहवद्भिरवाप्यते’ (गीता १२ । ५)। परन्तु सगुणोपासनामें देहका सम्बन्ध बाधक नहीं हैप्रत्युत भगवान्‌की विमुखता बाधक है । अत: भक्त आरम्भसे ही ‘मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान् मेरे हैं’‒ऐसा मानकर भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है । इसलिये सगुणोपासकका भगवान्‌की कृपासे शीघ्र ही तथा सुगमतासे उद्धार हो जाता है* । कारण कि भक्त साधनके आश्रित न होकर भगवान्‌के आश्रित होता है । यह सगुणोपासनाकी विलक्षणता है ! सगुणोपासनाकी दूसरी विलक्षणता यह है कि इसमें भक्त जगत्‌को मिथ्या मानकर उसका त्याग करनेपर जोर नहीं देताक्योंकि उसकी मान्यतामें जड़-चेतनस्थावर-जंगमसत्-असत् सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन’      (गीता १ । ११) । इसलिये सगुणकी उपासना समग्रकी उपासना है । गीताने सगुणको समग्र माना है और ब्रह्मजीवकर्मजगत्,हिरण्यगर्भ ब्रह्मा तथा अन्तर्यामी विष्णु‒इन सबको समग्र भगवान्‌के ही अंग माना है (७ । २९-३०) । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि निर्गुणोपासना (ब्रह्मकी उपासना) समग्र भगवान्‌के एक अंगकी उपासना है और सगुणोपासना स्वयं समग्र भगवान्‌की उपासना है !

निर्गुण-निराकार ब्रह्म और नाशवान् जगत्‒दोनों ही समग्र भगवान्‌के ऐश्वर्य हैं । भक्त ऐश्वर्यसे प्रेम नहीं करता,प्रत्युत ऐश्वर्यवालेसे प्रेम करता है । इसलिये भगवान्‌ने समग्रकी उपासना करनेवालेको सर्वश्रेष्ठ बताया है (गीता ६ । ४७१२ । २) और ‘सब कुछ भगवान् ही हैं’‒इसका अर्थात् समग्रका अनुभव करनेवाले महात्माको अत्यन्त दुर्लभ कहा है‒‘वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ’ (गीता ७ । ११) 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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  तेषामहं समुद्धर्ता      मृत्युसंसारसागरात् ।
     भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥ (गीता १२ । ७)

 ‘हे पार्थ ! मेरेमें आविष्ट चित्तवाले उन भक्तोंका मैं मृत्युरूप संसार-समुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ ।’

    अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
    तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥ (गीता ८ । १४)

      ‘हे पृथानन्दन ! अनन्य चित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता हैउस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’

     † जो समग्र भगवान्‌के एक अंगकी उपासना करता है उसको भी अन्तमें समग्रकी प्राप्ति हो जाती है (गीता १२ । ३-४१८ । ५३‒५५) । अत: जिसको निर्गुण अच्छा लगता होवह निर्गुणकी उपासना करेपर उसको निर्गुणका आग्रह रखकर सगुणका तिरस्कार नहीं करना चाहिये । सगुणका तिरस्कारनिन्दाखण्डन करना निर्गुणोपासकके लिये बहुत घातक है ।

       ‡ विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ॥
                                                  (गीता १० । ४२)
‘मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत्‌को व्यास करके स्थित हूँ ।’

       इहैकस्थं जगकृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
       मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्‌द्रष्टुमिच्छसि ॥ (गीता ११ । ७)

          ‘हे गुडाकेश ! मेरे इस शरीरके एक देशमें चराचरसहित सम्पूर्ण जगत्‌को अभी देख ले । इसके सिवाय तू और भी जो कुछ देखना चाहता हैवह भी देख ले ।’