।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
भगवान्‌का सगुण स्वरूप और भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
एतस्माज्जायते प्राणो    मन: सर्वेन्द्रियाणि च ।
खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी ॥
                                                                         (मुण्डक २ । १ । ३)
‘इसी परमेश्वरसे प्राणमन (अन्तःकरण)समस्त इन्द्रियाँ, आकाशवायुतेजजल और सम्पूर्ण प्राणियोंको धारण करनेवाली पृथ्वी उत्पन्न होती है ।’

उपनिषदोंमें आयी उपर्युक्त बातें सगुण परमात्माकी हैं, निर्गुण आत्माकी नहीं । गीतामें भी सगुण परमात्मासे ही सृष्टिकी उत्पत्ति आदि बतायी गयी है‒

सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम् ।
कल्पक्षये पुनस्तानि  कल्पादौ विसृजाम्यहम् ॥
प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य     विसृजामि   पुन: पुन: ।
भूतग्राममिमं       कृत्स्नमवशं     प्रकृतेर्वशात् ॥
                                                                                    (९ । ७-८)

 ‘हे कुन्तीनन्दन ! कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ । प्रकृतिके वशमें होनेसे परतन्त्र हुए इस प्राणिसमुदायको मैं (कल्पोंके आदिमें) अपनी प्रकृतिको वशमें करके बार-बार रचता हूँ ।’

मयाध्यक्षेण प्रकृति: सूयते सचराचरम् ।
                                                                                   (१ । १०)

 ‘प्रकृति मेरी अध्यक्षतामें सम्पूर्ण चराचर जगत्‌को रचती है ।’

अहं कृत्सस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा ॥
                                                                                 (१७ । ६)

 ‘मैं सम्पूर्ण जगत्‌का प्रभव तथा प्रलय हूँ ।’

३. सबके शासक परमात्मा हैं

हम जिस संसारमें बैठे हैंउसका शासकस्वामी सगुण ईश्वर ही है । जैसे राज्यमें राजाकी मुख्यता होती है,ऐसे ही संसारमें सगुण ईश्वरकी मुख्यता है । जैसे प्रत्येक समुदायका एक शासक होता हैऐसे ही सृष्टिका भी कोई शासक होना चाहिये । शासक निर्गुण-निराकार नहीं हो सकताक्योंकि निर्गुण-निराकारमें कोई स्फुरणा पैदा होती ही नहीं । अत: शासक सगुण-साकार ही हो सकता है । उपनिषदोंमें भी परमात्माको सबका शासकस्वामी बताया गया है‒

क्षर प्रधानममृताक्षरं हर: क्षरात्मानावीशते देव एक: ।
                                                                                (श्वेताश्वतर १ । १०)

 ‘प्रकृति तो विनाशशील है और इसको भोगनेवाला जीवात्मा अमृतस्वरूप अविनाशी है । इन दोनों (क्षर और अक्षर) को एक ईश्वर अपने शासनमें रखता है ।’

क्षरं त्वविद्या ह्यमृतं तु विद्या विद्याविद्ये ईशते यस्तु सोऽन्य: ॥ (श्वेताश्वतर ५ । १)

 ‘विनाशशील जड़वर्ग तो अविद्या नामसे कहा गया है और अविनाशी जीवात्मा विद्या नामसे कहा गया है । जो इन विद्या और अविद्या दोनोंपर शासन करता हैवह परमेश्वर इन दोनोंसे भिन्न‒सर्वथा विलक्षण है ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे