।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
वसन्तपंचमी
भगवान्‌ और उनकी भक्ति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसलिये उसको ऐसा दीखता है कि जो अच्छा होता हैवह भगवान्‌की कृपासे होता है और जो बुरा होता हैवह मेरी भूलसे होता है । वास्तवमें बात भी यही सच्ची है । भक्त कोई चालाकी नहीं करताझूठ नहीं बोलताप्रत्युत उसको ऐसा ही दीखता है कि मैं तो जैसा हूँवैसा ही हूँ ! यह तो ठाकुरजीकी कृपासे ऐसा काम बन गयाजिसको लोग मेरा मानकर मेरी बड़ाई कर रहे हैं । जब हनुमान्‌जी लंकासे लौटकर भगवान् रामके पास आयेतब भगवान्‌ने उनसे कहा‒
सुनु कपि तोहि   समान उपकारी ।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
                                                             (मानससुन्दर ३२ । ३)

यह सुनकर हनुमान्‌जी ‘त्राहि ! त्राहि !!’ कहते हुए भगवान्‌के चरणोंमें गिर गये‒
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन  परेउ  प्रेमाकुल    त्राहि    त्राहि  भगवंत ॥
                                                                             (मानससुन्दर ३२)

हनुमान्‌जीपर ऐसी कौन-सी आफत आ रही थी,जिससे बचनेके लिये उन्होंने ‘त्राहि ! त्राहि !!’ (बचाओ ! बचाओ !!) कहा वह आफत थी‒ अभिमान । भगवान्‌के द्वारा अपनी बड़ाई सुनकर कहीं अभिमान न आ जाय,इसलिये वे त्राहि-त्राहि पुकारने लगे और बोले कि सब कुछ आपके प्रतापसे ही हुआ हैमेरे बलसे नहीं‒
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ॥
                                                               (मानससुन्दर ३३ । ५)

जहाँ अपना अभिमान नहीं होतावहाँ साधकको कोई बाधा नहीं लगती । बाधा वहीं लगती हैजहाँ अपनेमें कुछ योग्यताबलसमझदारीविद्यावैराग्यत्यागजप आदिका अभिमान होता है । भक्त अपनेमें कोई योग्यता नहीं देखताप्रत्युत अपनेको सर्वथा अयोग्य समझता है । इसलिये उसमें भगवान्‌की योग्यता काम करती है । एक भगवान्‌के शरण हो जाय तो सब काम भगवान् करते हैं‒‘लाद देलदवा देलदवानेवाला साथ दे’, ‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ (गीता १ । २२) । यह अनन्यभक्ति है । भगवान्‌की एक बान (स्वभाव,आदत या प्रकृति) है कि उनको वही भक्त प्यारा लगता है,जिसका दूसरा कोई सहारा नहीं है‒
एक बानि   करुनानिधान  की ।
सो प्रिय जाके गति न आन की ॥
                                                             (मानसअरण्य १० । ४)
इसलिये‒

एक भरोसो एक बल       एक आस बिस्वास ।
एक राम घन स्याम हित चातक तुलसीदास ॥
                                                                             (दोहावली २७७)

‒इस प्रकार अनन्यभावसे केवल भगवान्‌के आश्रित रहे और भजन करे । भजनका भी अभिमान नहीं होना चाहिये कि मैं इतना जप करता हूँइतना ध्यान करता हूँ आदि ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे