।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
श्रीभीष्माष्टमी
भक्ति और उसकी महिमा


कल्याण-प्राप्तिके जितने भी साधन हैंउन सब साधनोंमें भक्ति सर्वश्रेष्ठ है‒‘त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी ।’ (नारदभक्तिसूत्र ८१) भगवान्‌के भजनका नाम भक्ति है । भजनका अर्थ है‒सेवन करना । जैसे शरीरके लिये अन्नजल और वायुका सेवन करते हैंऐसे ही स्वयंके लिये भगवान्‌का सेवन करना अर्थात् उनसे प्रेम करना भजन है ।
पन्नगारि सुनु प्रेम सम         भजन न दूसर आन ।
अस बिचारि मुनि पुनि पुनि करत राम गुन गान ॥
                                                                   (मानसअरण्य १० में पाठभेद)

प्रेमके समान कोई भजन नहीं हैइसलिये मुनिजन बार-बार भगवान्‌का गुणगान करते हैं‒इसका तात्पर्य है किभगवान्‌का गुणगान करनेसे उनमें प्रेम हो जाता है । भगवान् अच्छे लगेंमीठे लगेंप्यारे लगें‒यह प्रेम है । जड़, नाशवान् पदार्थोंमें अर्थात् रुपयोंमेंभोगोंमेंकुटुम्बियोंमेंशरीरमें हमारा जो आकर्षण हैवह छूटकर केवल भगवान्‌में आकर्षण हो जाय‒इसका नाम प्रेम है । वास्तवमें हमारा आकर्षण भगवान्‌की तरफ ही हैपर नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे वह आकर्षण संसारमें हो गया । जैसे गंगाजल इतना पवित्र है कि उसका दर्शन करनेसे सैकड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं । परन्तु वर्षा-ऋतुमें बढनेके बाद जब वह घटती हैतब उसका कुछ जल गड्‌ढोंमें रह जाता है । गड्‌ढोंका वह जल‘गंगोज्झ’ कहलाता हैजो मदिराके समान अशुद्ध होता है ।कारण कि वह गंगाजीके प्रवाहसे अलग हो गयागंगाजीसे विमुख हो गयागंगाजीने उसका त्याग कर दिया । हम अपना कलश गंगाजीसे भरकर लायें तो वह अशुद्ध नहीं होताक्योंकि उसको हमने गंगाजीसे लिया हैगंगाजीने उसका त्याग नहीं किया है । ऐसे ही भगवान् महान् पवित्र हैं‒‘पवित्रं परमं भवान्’ (गीता १० । १२) और उनका अंश होनेसे हम स्वयं भी पवित्र हैं‒‘चेतन अमल सहज सुख रासी’(मानसउत्तर ११७ । १) । परन्तु हमारा आकर्षण भगवान्‌में न होकर नाशवान् भोगोंमें हो गया तो हमारा जीवन गंगोज्झ हो गयामहान् अपवित्र हो गया । जैसे गंगाजीका प्रवाह बढ़नेसे गंगोज्झ पुन: गंगाजीमें मिलकर महान् पवित्र बन जाता हैऐसे ही हमारा आकर्षण भगवान्‌में हो जाय तो हमारा सम्पूर्ण जीवन महान् पवित्र हो जायगा ।

जैसे गंगाजीका प्रवाह निरन्तर समुद्रकी तरफ जाता हैऐसे ही आठों पहर हमारी वृत्तियोंका प्रवाह भगवान्‌की तरफ जाना चाहिये । भगवान् हमें दर्शन दें या न देंहमें स्वीकार करें या न करेंपर हमारा मन केवल भगवान्‌की तरफ ही चलना चाहिये । जैसेभरतजी महाराजने कहा है‒
जानहुँ राम कुटिल करि मोही ।
लोग कहउ गुर   साहिब द्रोही ॥
सीता  राम   चरन  रति  मोरे ।
अनुदिन   बढ़उ   अनुग्रह  तोरें ॥
                      (मानसअयोध्या २०५ । १)
    
   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे