कल्याण-प्राप्तिके जितने भी साधन हैं, उन सब साधनोंमें भक्ति सर्वश्रेष्ठ है‒‘त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी ।’ (नारदभक्तिसूत्र ८१) भगवान्के भजनका नाम भक्ति है । भजनका अर्थ है‒सेवन करना । जैसे शरीरके लिये अन्न, जल और वायुका सेवन करते हैं, ऐसे ही स्वयंके लिये भगवान्का सेवन करना अर्थात् उनसे प्रेम करना भजन है ।
पन्नगारि सुनु प्रेम सम भजन न दूसर आन ।
अस बिचारि मुनि पुनि पुनि करत राम गुन गान ॥
(मानस, अरण्य॰ १० में पाठभेद)
प्रेमके समान कोई भजन नहीं है, इसलिये मुनिजन बार-बार भगवान्का गुणगान करते हैं‒इसका तात्पर्य है किभगवान्का गुणगान करनेसे उनमें प्रेम हो जाता है । भगवान् अच्छे लगें, मीठे लगें, प्यारे लगें‒यह प्रेम है । जड़, नाशवान् पदार्थोंमें अर्थात् रुपयोंमें, भोगोंमें, कुटुम्बियोंमें, शरीरमें हमारा जो आकर्षण है, वह छूटकर केवल भगवान्में आकर्षण हो जाय‒इसका नाम प्रेम है । वास्तवमें हमारा आकर्षण भगवान्की तरफ ही है, पर नाशवान् पदार्थोंको महत्त्व देनेसे वह आकर्षण संसारमें हो गया । जैसे गंगाजल इतना पवित्र है कि उसका दर्शन करनेसे सैकड़ों जन्मोंके पाप नष्ट हो जाते हैं । परन्तु वर्षा-ऋतुमें बढनेके बाद जब वह घटती है, तब उसका कुछ जल गड्ढोंमें रह जाता है । गड्ढोंका वह जल‘गंगोज्झ’ कहलाता है, जो मदिराके समान अशुद्ध होता है ।कारण कि वह गंगाजीके प्रवाहसे अलग हो गया, गंगाजीसे विमुख हो गया, गंगाजीने उसका त्याग कर दिया । हम अपना कलश गंगाजीसे भरकर लायें तो वह अशुद्ध नहीं होता, क्योंकि उसको हमने गंगाजीसे लिया है, गंगाजीने उसका त्याग नहीं किया है । ऐसे ही भगवान् महान् पवित्र हैं‒‘पवित्रं परमं भवान्’ (गीता १० । १२) और उनका अंश होनेसे हम स्वयं भी पवित्र हैं‒‘चेतन अमल सहज सुख रासी’(मानस, उत्तर॰ ११७ । १) । परन्तु हमारा आकर्षण भगवान्में न होकर नाशवान् भोगोंमें हो गया तो हमारा जीवन गंगोज्झ हो गया, महान् अपवित्र हो गया । जैसे गंगाजीका प्रवाह बढ़नेसे गंगोज्झ पुन: गंगाजीमें मिलकर महान् पवित्र बन जाता है, ऐसे ही हमारा आकर्षण भगवान्में हो जाय तो हमारा सम्पूर्ण जीवन महान् पवित्र हो जायगा ।
जैसे गंगाजीका प्रवाह निरन्तर समुद्रकी तरफ जाता है, ऐसे ही आठों पहर हमारी वृत्तियोंका प्रवाह भगवान्की तरफ जाना चाहिये । भगवान् हमें दर्शन दें या न दें, हमें स्वीकार करें या न करें, पर हमारा मन केवल भगवान्की तरफ ही चलना चाहिये । जैसे, भरतजी महाराजने कहा है‒
जानहुँ राम कुटिल करि मोही ।
लोग कहउ गुर साहिब द्रोही ॥
सीता राम चरन रति मोरे ।
अनुदिन बढ़उ अनुग्रह तोरें ॥
(मानस, अयोध्या॰ २०५ । १)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान् और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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