।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
माघ शुक्ल दशमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
एकादशी-व्रत कल है
भक्ति और उसकी महिमा


(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे गंगाजीमें माघका स्नान भी किया जाता है और वैशाखका भी । दोनोंका माहात्म्य समान है । माघके स्नानमें ठण्डके कारण बड़ा कष्ट होता है । हवा भी ठण्डी और गंगाजीका जल भी ठण्डा ! जब स्नान करते हैंतब शरीर काँपने लगता हैशरीरमें जगह-जगह खून जम जाता है,हाथोंसे कपड़े नहीं उठाये जाते । परन्तु वैशाखके स्नानमें बड़ी प्रसन्नता होती है । गरमीके समय गंगाजीके ठण्डे जलमें स्नान किया जाय तो बड़ा आनन्द आता है । ऐसे ही वैरभयद्वेष आदिसे भगवान्‌के साथ सम्बन्ध जोड़ना माघका स्नान है और प्रेमपूर्वक सम्बन्ध जोड़ना वैशाखका स्नान है । प्रेममें भगवान् बड़े अच्छेबड़े प्यारेबड़े मीठे लगते हैं । उनके गुणमहिमा,नाम आदि सुनकर चित्त मस्त हो जाता है ।

जैसे ज्ञानीकी अपने स्वरूपमें प्रीति (आत्मरति) होती हैऐसे ही भक्तकी भगवान्‌में प्रीति होती है‒‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’ (गीता १० । १) । भगवत्प्रीति होनेसे वह रात-दिन भगवान्‌के ही गुण गाता हैभगवान्‌की ही चर्चा करता हैभगवान्‌का ही यश सुनता है । उसको भगवान्‌का ध्यान करना नहीं पड़ताप्रत्युत उसके द्वारा स्वत: भगवान्‌का ध्यान होता है । जैसे भूखेको अन्न स्वत: याद आता हैयाद करना नहीं पड़ताऐसे ही उसको स्वत: भगवान्‌की याद आती है । इन्द्रके साथ युद्ध करते समय वृत्रासुर कहता है‒
अजातपक्षा     इव मातरं खगाः
स्तन्यं यथा वत्सतराः शुधार्ता: ।
प्रियं प्रियेव      व्युषितं विषण्णा
मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम् ॥
                                                            (श्रीमद्भा ६ । ११ । २६)
‘जैसे पक्षियोंके पंखहीन बच्चे अपनी माँकी प्रतीक्षा करते हैं । जैसे केवल दूधपर निर्भर रहनेवाले भूखे बछड़े अपनी माँका दूध पीनेके लिये आतुर रहते हैं और जैसे विरहिणी पतिव्रता स्त्री अपने पतिसे मिलनेके लिये उत्कण्ठित रहती हैवैसे ही हे कमलनयन ! मेरा मन भी आपके दर्शनके लिये छटपटा रहा है ।’

माता पार्वतीके शापसे वृत्रासुर ऊपरसे तो असुर बन गया थापर भीतरसे वह भगवान्‌का प्रेमी भक्त था । इसलिये वह कहता है‒
न नाकपृष्ठं     न च पारमेष्ठ्यं
न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम् ।
न     योगसिद्धीरपुनर्भवं    वा
समञ्जस त्वा विरहस्य काङ्क्षे ॥
                                                             (श्रीमद्भा ६ । ११ । २५)
‘सर्वसौभाग्यनिधे ! मैं आपको छोड़कर स्वर्ग,ब्रह्मलोकभूमण्डलका साम्राज्यरसातलका एकछत्र राज्य,योगकी सिद्धियाँ, यहाँतक कि मोक्ष भी नहीं चाहता ।’

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे