।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
मुक्ति सहज है


(गत ब्लॉगसे आगेका)
अगर सुखराशि नहीं हो तो नींद क्यों चाहते हो ? विश्राम क्यों चाहते हो ? काम-धंधा करो आठों पहर ! नींदमें शरीरको विश्राम मिलता हैमन-बुद्धि-इन्द्रियोंको विश्राम मिलता है । संसारको भूल जानेसे आनन्द मिलता है । अगर संसारका त्याग कर दो तो बड़ा भारी आनन्द मिलेगा और स्वरूपमें स्थिति हो जायगी । स्वरूपमें आपकी स्थिति स्वत:-स्वाभाविक है और स्वरूपमें महान् आनन्द है ।

आप अविनाशीचेतनअमल और सहजसुखराशि हैं । यदि आप अविनाशी न होते तो आपको बाल्यावस्था,युवावस्था और वृद्धावस्थाका ज्ञान नहीं होताजाग्रत्स्वप्न,सुषुप्तिमूर्च्छा और समाधि-अवस्थाका ज्ञान नहीं होता ।आप स्वयं नित्य-निरन्तर रहते हो और ये अवस्थाएँ निरन्तर नहीं रहतीं । ये आपके साथी नहीं हैं और आप इनके साथी नहीं हो । इनके साथ रहना अज्ञान है और इनके साथ न रहनेकाइनके संगके अभावका अनुभव करना ज्ञान हैबोध हैजीवन्मुक्ति है । प्रत्यक्ष बात हैसबका अनुभव है । अब केवल इस ज्ञानको महत्व देना है ।

आपने रुपयोंको महत्त्व दे रखा हैभोगोंको महत्त्व दे रखा हैशरीरको महत्त्व दे रखा हैकुटुम्बको महत्त्व दे रखा हैजमीन-मकानको महत्त्व दे रखा है । इस तरह नाशवान्‌को जो महत्त्व दे रखा हैयही अनर्थका मूल है । जिनका कुछ भी महत्त्व नहीं हैजो क्षणभंगुर हैंएक क्षण भी स्थिर नहीं रहतेउनको तो आपने महत्त्व दे दियाऔर आप निरन्तर रहते होउसको आप महत्त्व देते ही नहीं ! महत्त्वकी चीज तो यह है । केवल इस विवेकको महत्त्व देना हैइतनी ही बात है ! यह सब बदलता हैपर आप नहीं बदलते । आप वही रहते हो । सबका अभाव होनेपर आप सुखका अनुभव करते हो । नींदमें आप संसारको भूल जाते हो तो उसमें आपको ताजगी मिलती हैसुख मिलता है । ऐसे ही आप जाग्रत्-अवस्थामें अपने-आपमें स्थित हो जाओ । मैं समाधिकी बात,अन्तःकरणकी एकाग्रताकी बात नहीं कहता हूँ । अपने-आपमें आपकी स्थिति स्वत: है । जाग्रत्‌मेंस्वप्नमेंसुषुप्तिमें,मूर्च्छामेंसमाधिमेंकिस अवस्थामें आपकी स्थिति नहीं है ?आपकी स्थिति स्वतः हैइसको आप पहचानो । आने-जानेवालोके साथ नहीं मिलना है‒इसका नाम है ज्ञान । इनके साथ मिल जाना है‒इसका नाम है अज्ञान । इतनी ही तो बात है ! अनेक ग्रन्थोंको पढ़नेसे बोध नहीं होगा और इस बातको आप मानो तो बोध हो जायगा ! वास्तवमें यह व्यक्तिगत बात नहीं हैसबकी बात है । सबके अनुभवकी बात है ।

श्रोता‒बात स्पष्ट समझमें आती है पर व्यवहारकालमें इतना घुल-मिल जाते हैं कि यह विवेक लुप्त-सा हो जाता है !

स्वामीजी‒व्यवहारमें जागृति नहीं रहतीइसका कारण क्या है ? कि व्यवहारमें आनेवाली नाशवान् वस्तुओंको आपने महत्त्व दे दिया ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘नित्ययोगकी प्राप्ति’ पुस्तकसे