।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल द्वितीया, वि.सं.–२०७०, सोमवार
प्रेमप्रेमी तथा प्रेमास्पद
  

१.   हम भगवान्‌में तथा भगवान् हमारेमें हैं

एक मार्मिक बात है कि हम वास्तवमें जो चाहते हैंवह सदा हमारेमें है और हम सदा उसमें हैं । हमारी वास्तविक इच्छाएँ तीन हैं‒(१) ‘सत्‌’ की इच्छा कि मैं सदा जीता रहूँ,कभी मरूँ नहीं (२) ‘चित्’ की इच्छा मैं सब कुछ जान जाऊँ,कभी किसी विषयमें अनजान न रहूँ और (३) ‘आनन्द’ की इच्छा कि मैं सदा सुखी रहूँकभी दुःखी न रहूँ । ये तीनों ही इच्छाएँ सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्माकी हैं । वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा सदा हमारेमें हैं और हम सदा उनमें हैं । परन्तु हमारेसे भूल यह होती है कि हम इन इच्छाओंको उससे पूरी करना चाहते हैंजो हमारेमें नहीं है और हम उसमें नहीं हैं । तात्पर्य है कि हम शरीरसे जीना चाहते हैं,बुद्धिसे जानकार बनना चाहते हैं और इन्द्रियोंसे सुखी होना चाहते हैं‒इस प्रकार हम तीनों इच्छाओंको संसारसे पूरी करना चाहते हैंजो कि असत्जड़ और दुःखस्वरूप है । इसलिये ये इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं और हम अनादिकालसे दुःख पा रहे हैं । चाह तो करें सत्-चित्-आनन्दकी और पूरी करना चाहें असत्-जड़-दुःखरूप संसारसेकितनी मूर्खताकी बात है ! शरीर और संसारके निरन्तर बदलनेका अनुभव सबको होता हैपर अपने बदलनेका अनुभव कभी किसीको नहीं होता । शरीर बालकसे जवान और जवानसे बूढ़ा हो जाता हैपर ‘मैं वही हूँ’‒इसमें अर्थात् स्वयंमें कोई र्पारेवर्तन नहीं होता । इसलिये हम संसारमें नहीं हैं और संसार हमारेमें नहीं है । तात्पर्य है कि संसार हमारेसे अलग है और परमात्मा हमें नित्यप्राप्त हैं । जो अलग हैउसको प्राप्त मानना और जो नित्यप्राप्त हैउसको अलग (अप्राप्त) मानना‒इसके समान कोई पाप नहीं है ।
योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा प्रतिपद्यते ।
किं तेन न कृतं पापं चौरेणात्मापहारिणा ॥
                                                            (महा उद्योग ४२ । ३७)
‘जो अन्य प्रकारका होते हुए भी आत्माको अन्य प्रकारका मानता हैउस आत्मघाती चोरने कौन-सा पाप नहीं किया ? अर्थात् उसने सब पाप कर लिये ।’

जो हमारेसे अलग हैउसकी सेवा करनी है और जो हमारेमें है, उसको अपना मानना है । ऐसा करनेसे संसारसे माना हुआ सम्बन्ध टूट जायगा और परमात्माका वास्तविक सम्बन्ध जाग्रत् हो जायगा । परमात्माका सम्बन्ध जाग्रत् होनेपर प्रेमकी प्राप्ति हो जायगीजो मनुष्यजीवनका चरम लक्ष्य है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे