।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल तृतीया, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
प्रेमप्रेमी तथा प्रेमास्पद
  

२. भगवान् अपने हैं
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जबतक संसारके साथ अपने सम्बन्धकी मान्यता रहती है, तबतक मनुष्यको जो भी वस्तु मिलती हैउसको वह अपनी ही मान लेता है । परन्तु जब सत्संगके द्वारा उसको इस बातका ज्ञान होता है कि संसार मेरा नहीं हैप्रत्युत भगवान् ही मेरे हैंतब उसको अनुभव होता है कि जो भी वस्तु मिली हैवह भगवान्‌की ही है और भगवान्‌से ही मिली है । अत: वस्तु अपनी नहीं हैप्रत्युत उसको देनेवाला अपना है ।

मनुष्यसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो देखता हैपर उसको देनेवालेकी तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं ! वह वस्तुको तो अपना मानता हैपर उसे देनेवालेको अपना मानता ही नहीं ! वास्तवमें मिली हुई वस्तु जितनी प्यारी लगती हैउससे अधिक भगवान् (देनेवाले) प्यारे लगने चाहिये । मिली हुई वस्तुसे तो प्यार करनापर उसको देनेवालेसे प्यार न करना कृतज्ञबुद्धि नहीं हैप्रत्युत भोगबुद्धि है ।

प्रतिक्षण वर्धमान आनन्द (प्रेम) का आस्वादन एक (अकेला) होनेसे नहीं होता‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक१।४।३) । इसलिये प्रेमलीलाका आस्वादन करनेके लिये भगवान्‌ने ‘मैं एक ही बहुत हो जाऊँ’‒ऐसा संकल्प किया‒‘सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति’ (तैत्तिरीय २।६)भगवान्‌के इस संकल्पसे असंख्य जीवोंकी सृष्टि हुई । भगवान्‌ने श्रीजी (राधाजी) को भी अपनेमेंसे प्रकट किया,जीवोंको भी अपनेमेंसे प्रकट किया और लीलाकी सामग्री (संसार) को भी अपनेमेंसे ही प्रकट किया । प्रेमलीला तभी होती हैजब प्रेमी और प्रेमास्पद दोनों बराबर होंकोई भी छोटा-बड़ा न हो । अत: भगवान्‌ने जीवोंको अपने समान अर्थात् पूर्ण स्वतन्त्र बनाया । इस प्रेमलीलामें श्रीजीका तो केवल भगवान्‌में ही आकर्षण रहाउनसे भूल नहीं हुईपर अन्य जीवोंने मिली हुई स्वतन्त्रताका दुरुपयोग करके लीलाकी वस्तुओं (संसार) को अपना मान लिया और वे उनकी तरफ खिंच गये ! वे भगवान्‌से प्रेम न करके उनकी दी हुई वस्तुओंमें ही रमण करने लगे । वे खुद उन वस्तुओंके मालिक बन गये और अपने मालिकको भूल गये । उन्होंने वस्तुओंको अपना मान लिया और जिसने उनको दिया था,उससे विमुख हो गये । इस प्रकार मिली हुई स्वाधीनताका दुरुपयोग करके जीव पराधीन हो गया तथा जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़ गया । भगवान् जीवपर कृपा करके उसको विवेक देते हैं । जब मनुष्य उस विवेकको महत्त्व देता हैतब भगवान् उसको बोध देते हैं । उस बोधको पाकर मनुष्य पूर्णताका अनुभव करता है और ‘मैं धन्य हूँ ! मैं धन्य हूँ !!’कहकर हर्षित हो उठता है । परन्तु यह भी उसकी भूल ही है । वास्तवमें पूर्णता अपनी नहीं हैप्रत्युत पूर्णताको देनेवाला अपना है । इसलिये हमें पूर्णता नहीं चाहियेप्रत्युत पूर्णताको देनेवाला चाहिये ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे