।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल पंचमी, वि.सं.–२०७०, गुरुवार
प्रेमप्रेमी तथा प्रेमास्पद


(गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌की दी हुई सामर्थ्यसे ही मनुष्य कर्मयोगी होता है, उनके दिये हुए ज्ञानसे ही मनुष्य ज्ञानी होता है और उनके दिये हुए प्रेमसे ही मनुष्य प्रेमी होता है । मनुष्यमें जो भी विशेषताविलक्षणता देखनेमें आती हैवह सब-की-सब उन्हींकी दी हुई है । सब कुछ देकर भी वे अपनेको प्रकट नहीं करते‒यह उनका स्वभाव है ।

अगर भगवान्‌से कुछ माँगना है तो प्रेम ही माँगना है,कुछ पाना है तो प्रेम ही पाना है । एक प्रेमके सिवाय मनुष्यको कुछ नहीं चाहिये । मनुष्यको इस प्रेम-रसका आस्वादन करानेके लिये ही भगवान् मनुष्यरूपसे संसारमें अवतार लेते हैंअपने-आपको प्रकट करते हैंतरह-तरहकी लीलाएँ करते हैं और अपने हृदयकी अन्तिम तथा सर्वगुह्यतम (सबसे अत्यन्त गोपनीय) बात‒शरणागतिका उपदेश देते हैं*

भगवान्‌ने मनुष्यकी रचना न तो अपने सुखभोगके लिये की हैन उसको भोगोंमें लगानेके लिये की है और न उसपर शासन करनेके लिये की हैप्रत्युत इसलिये की है किवह मेरेसे प्रेम करेमैं उससे प्रेम करूँवह मेरेको अपना कहे,मैं उसको अपना कहूँवह मेरेको देखेमैं उसको देखूँ ! तात्पर्य है कि भगवान् मनुष्यको अपना दास (पराधीन) नहीं बनाते,प्रत्युत अपने समान बनाते हैंअपने समान आदर देते हैं । इसलिये भगवान् भक्ति देनेमें संकोच करते हैंक्योंकि भक्तिमें मनुष्य भगवान्‌का दास बन जाता है । इसलिये श्रीमद्भागवतमें आया है‒
मुक्तिं ददाति कर्हिचित्स्म न भक्तियोगम् ।
                                                                 (श्रीमद्भा ५ । ६ । १८)
‘भगवान् मुक्ति तो कभी दे देते हैंपर भक्तियोग सहजमें नहीं देते ।’

भगवान् श्रीरामने जब काकभुशुण्डिजीसे कहा कि तू अणिमादि सिद्धियों ज्ञानवैराग्यमुक्ति आदि जो चाहे,  सो वर माँग ले । तब काकभुशुण्डिजीने विचार किया कि भगवान्‌ने सब कुछ देनेकी बात तो कही हैपर अपनी भक्ति देनेकी बात कही ही नहीं‒
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ ।
मन अनुमान     करन तब लागेउँ ॥
प्रभु कह देन       सकल सुख सही ।
भगति   आपनी    देन   न   कही ॥
भगति  हीन  गुन   सब  सुख ऐसे ।
लवन  बिना    बहु   बिंजन  जैसे ॥
                                                             (मानसउत्तर ८४ । २-३)

इसलिये काकभुशुण्डिजीने और कुछ न माँगकर भक्तिका ही वर माँगा । इससे भगवान् बड़े प्रसन्न हुए और ‘एवमस्तु’ कहकर बोले‒  

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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 *सर्वधर्मान्यरित्यज्य    मामेकं  शरणं  व्रज     ।
   अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ (गीता १८ । ६६)
          
            ‘सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा । मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगातू चिन्ता मत कर ।’