।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
प्रेमप्रेमी तथा प्रेमास्पद


(गत ब्लॉगसे आगेका)
४. नित्यविरह और नित्यमिलन

मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान् मेरे हैं‒इस प्रकार भगवान्‌में आत्मीयताके समान दूसरा कोई साधन नहीं है,भजन नहीं है । आत्मीयतासे आनन्दघन भगवान्‌को भी आनन्द मिलता है । भगवान् अपने आत्मीय जनको अपना सर्वस्व प्रदान कर देते हैं । भगवान् उसको अपना अनन्तरस (प्रेम) प्रदान करते हैं । परन्तु जो पराधीनतासेजन्म-मरणके बन्धनसे दुःखी होकर मुक्तिकी कामना करते हैंउनको भगवान् मुक्ति प्रदान करते हैंकिन्तु स्वयं उससे छिपकर रहते हैं । जब मुक्त पुरुषको मुक्ति (अखण्डरस) में भी सन्तोष नहीं होतातब उसमें अनन्तरसकी भूख जाग्रत् होती है । कारण कि मुक्त होनेपर नाशवान् रसकी कामना तो मिट जाती हैपर अनन्तरसकी भूख नहीं मिटती । इसलिये ब्रह्मसूत्रमें आया है‒
मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात् । (१ । ३ । २)

 ‘उस प्रेमस्वरूप भगवान्‌को मुक्त पुरुषोंके लिये भी प्राप्तव्य बताया गया है ।’ अत: भगवान्‌का एक नाम‘आत्मारामगणाकर्षी’ भी है ।

अनन्तरस-बोधमें नहीं हैप्रत्युत प्रेममें है । इस अनन्तरसकी भूख ही जीवकी वास्तविक तथा अन्तिम भूख है और प्रेमकी प्राप्ति ही जीवका वास्तविक तथा अन्तिम लाभ है । मुक्तिकी तो सीमा है*पर इस प्रेमकी कोई सीमा नहीं है । इस प्रेमकी प्राप्तिके लिये भगवान् कैसे हैं‒यह जाननेकी जरूरत नहीं हैप्रत्युत भगवान् मेरे हैं‒यह माननेकी जरूरत है । भगवान् मेरे हैं‒यह आत्मीयता भक्त और भगवान्‒दोनोंको आनन्द प्रदान करती है अनन्तरस प्रदान करती है ।कारण कि किसी वस्तुका ज्ञान होनेसे केवल अज्ञान मिटता है मिलता कुछ नहीं । परन्तु ‘वस्तु मेरी है’‒इस तरह वस्तुमें ममता होनेसे एक रस मिलता है । तात्पर्य है कि वस्तुके आकर्षणमें जो रस हैवह रस वस्तुके ज्ञानमें नहीं है । सांसारिक वस्तुमें आकर्षण तो अपने सुखके लिये होता है पर भगवान्‌में आकर्षण उनको सुख देनेके लिये होता है‒‘तत्सुखे सुखित्वम् ।’ इसलिये सांसारिक आकर्षणका तो अन्त आ जाता हैपर भगवान्‌के आकर्षणका अन्त नहीं आतावह अनन्त होता है । भोगेच्छाका अन्त होता है और मुमुक्षा अथवा जिज्ञासाकी पूर्ति होती हैपर प्रेम-पिपासाका न तो अन्त होता है और न पूर्ति हाती हैप्रत्युत वह प्रतिक्षण बढ़ती ही रहती है‒‘प्रतिक्षणवर्धमानम्’ (नारदभक्तिसूत्र ५४) 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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    * यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव: ।
       आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ (गीता ३ । १७)

           ‘जो मनुष्य अपने-आपमें ही रमण करनेवाला और अपने-आपमें ही तृप्त तथा अपने-आपमें ही सन्तुष्ट हैउसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है ।’