।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी, वि.सं.–२०७०, रविवार
होलाष्टकारम्भ
प्रेमप्रेमी तथा प्रेमास्पद


(गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रेमीको सदा अपनेमें प्रेमका अभाव ही दीखता है ।जैसे धनी आदमीको सदा धनका अभाव ही दीखता है । ज्यों-ज्यों धन बढ़ता हैत्यों-ही-त्यों उसको धनकी कमी मालूम देती है* । ऐसे ही प्रेमीको अपनेमें प्रेमकी कमी-ही-कमी मालूम देती है । इसलिये प्रेमको प्रतिक्षण वर्धमान कहा गया है । यदि प्रेमीको प्रेममें कमी न मालूम दे तो प्रेम बढ़ेगा कैसेअपनेमें पूर्णता न माननासदा प्रेमकी कमी मानना ही ‘नित्यविरह’ है । नित्यविरह और नित्यमिलन (नित्ययोग) दोनों ही नित्य हैं । अत: न तो प्रेमास्पदसे मिलनकी लालसा पूरी होती है और न प्रेमास्पदसे वियोग ही होता है । नित्यविरहसे प्रेम बढ़ता है और नित्यमिलनसे प्रेममें प्राण आ जाते हैंचेतना आ जाती हैविशेष विलक्षणता आ जाती है । नित्यविरह और नित्यमिलन एक ही प्रेमके दो रूप हैं ।
अरबरात    मिलिबेको   निसिदिन,
मिलेइ रहत  मनु   कबहुँ मिलै ना ॥
‘भगवतरसिक’      रसिक  की बातें,
रसिक बिना कोउ समुझि सकै ना ॥

गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज नित्यविरह और नित्यमिलनका उदाहरण देते हुए कौसल्या माताकी दशाका वर्णन करते हैं ‒

          माई री ! मोहि कोउ न समुझावै ।
          राम-गवन साँचो किधौं सपनोमन परतीति न आवै  ॥१॥
          लगेइ रहत मेरे नैननि आगेराम लखन अस सीता ।
            तदपि न मिटत दाह या उरकोबिधि जो भयो बिपरीता ॥२॥
          दुख न रहै रघुपतिहि बिलोकततनु न रहै बिनु देखे ।
            करत न प्रान पयानसुनहु सखि ! अरुझि परी यहि लेखे  ॥३॥
          कौसल्या के बिरह-बचन सुनि रोइ उठीं सब रानी ।
         तुलसिदास रघुबीर-बिरहकी पीर न जाति बखानी     ॥४॥
                                                             (गीतावलीअयोध्या ५३)
यह नित्यविरह और नित्यमिलन भी भगवान् अपनी ओरसे कृपा करके प्रदान करते हैं ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘भगवान्‌ और उनकी भक्ति’ पुस्तकसे
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          * वास्तवमें ‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’यह वृत्ति जीवमें प्रतिक्षण वर्धमान भगवत्प्रेमके लिये ही थीपर जीवने इसको संसारमें,भोग और संग्रहमें लगा दिया । जीवमें आकर्षण तो अविनाशी भगवान्‌का ही थापर इस आकर्षणको उसने नाशवान् संसारमें लगा दिया । आकर्षण तो वही रहापर कुसंगसेभोगोंका सुख लेनेसे उस आकर्षणका लक्ष्य बदल गया । संसारका आकर्षण (आसक्ति या काम) पतनकी तरफ ले जाता है और भगवान्‌का आकर्षण (प्रेम) उन्नतिकी तरफ ले जाता है ।संसारका आकर्षण तो क्षीण होकर दुःखमेंनीरसतामें परिणत होता है,पर भगवान्‌का आकर्षण प्रतिक्षण वर्धमान आनन्दमें परिणत होता है ।