।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७१, शुक्रवार
कामदा एकादशीव्रत (सबका)
भगवान् और उनकी दिव्य शक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
निर्गुण-उपासनामें वही शक्ति ‘ब्रह्मविद्या’ हो जाती है और सगुण-उपासनामें वही शक्ति ‘भक्ति’ हो जाती है । जीव भगवान्‌का ही अंश है । जब वह दूसरोंमें मानी हुई ममता हटाकर एकमात्र भगवान्‌की स्वतःसिद्ध वास्तविक आत्मीयताको जाग्रत् कर लेता हैतब भगवान्‌की शक्ति उसमें भक्ति-रूपसे प्रकट हो जाती है । वह भक्ति इतनी विलक्षण है कि निराकार भगवान्‌को भी साकाररूपसे प्रकट कर देती हैभगवान्‌को भी खींच लेती है । वह भक्ति भी भगवान् ही देते हैं ।

भगवान्‌की भक्तिरूप शक्तिके दो रूप हैं‒विरह और मिलन । भगवान् विरह भी भेजते हैं* और मिलन भी । जब भगवान् विरह भेजते हैंतब भक्त भगवान्‌के बिना व्याकुल हो जाता है । व्याकुलताकी अग्निमें संसारकी आसक्ति जल जाती है और भगवान् प्रकट हो जाते हैं । ज्ञानमार्गमें भगवान्‌की शक्ति पहले उत्कट जिज्ञासाके रूपमें आती है (जिससे तत्त्वको जाने बिना साधकसे रहा नहीं जाता) और फिर ब्रह्मविद्यारूपसे जीवके अज्ञानका नाश करके उसके वास्तविक स्वरूपको प्रकाशित कर देती है । परंतु भगवान्‌की वह दिव्य शक्तिजिसे भगवान् विरहरूपसे भेजते हैंउससे भी बहुत विलक्षण है ।  ‘भगवान् कहाँ हैं ? क्या करूँ कहा जाऊँ ?इस प्रकार जब भक्त व्याकुल हो जाता है, तब यह व्याकुलता सब पापोंका नाश करके भगवान्‌को साकाररूपसे प्रकट कर देती है । व्याकुलतासे जितना शीघ्र काम बनता है,उतना विवेक-विचारपूर्वक किये गये साधनसे नहीं ।
(२)

भगवान् अपनी प्रकृतिके द्वारा अवतार लेते हैं और तरह-तरहकी अलौकिक लीलाएँ करते हैं । जैसे अग्नि स्वयं कुछ नहीं करतीउसकी प्रकाशिका-शक्ति प्रकाश कर देती हैदाहिका-शक्ति जला देती हैऐसे ही भगवान् स्वयं कुछ नहीं करतेउनकी दिव्य शक्ति ही सब काम कर देती है । शास्त्रोंमें आता है कि सीताजी कहती हैं‒‘रावणको मारना आदि सब काम मैंने किया हैरामजीने कुछ नहीं किया ।’

जैसे मनुष्य और उसकी शक्ति (बल) हैऐसे ही भगवान् और उनकी शक्ति है । उस शक्तिको भगवान्‌से अलग भी नहीं कह सकते और एक भी नहीं कह सकते । मनुष्यमें जो शक्ति हैउसे वह अपनेसे अलग करके नहीं दिखा सकताइसलिये वह उससे अलग नहीं है । मनुष्य रहता हैपर उसकी शक्ति घटती-बढ़ती रहती हैइसलिये वह मनुष्यसे एक भी नहीं है । यदि उसकी मनुष्यसे एकता होती तो वह उसके स्वरूपके साथ बराबर रहतीघटती-बढ़ती नहीं । अत: भगवान् और उनकी शक्तिको भिन्न अथवा अभिन्न कुछ भी नहीं कह सकते । दार्शनिकोंने भिन्न भी नहीं कहा और अभिन्न भी नहीं कहा । वह शक्ति अनिर्वचनीय है । भगवान् श्रीकृष्णके उपासक उस शक्तिको श्रीजी- (राधाजी-) के नामसे कहते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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* संतोंकी वाणीमें आया है‒‘दरिया हरि किरपा करीबिरहा दिया पठाय ।’ अर्थात् भगवान्‌ने कृपा करके मेरे लिये विरह भेज दिया ।