।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
चैत्र शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७१, रविवार
श्रीमहावीर-जयन्ती
भगवान् और उनकी दिव्य शक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भगवान्‌में एक सौन्दर्य-शक्ति भी होती है, जिससे प्रत्येक प्राणी उनमें आकृष्ट हो जाता है । भगवान् श्रीकृष्णके सौन्दर्यको देखकर मथुरापुरवासिनी स्त्रियों आपसमें कहती हैं‒
                         गोप्यस्तप: किमचरन् यदमुष्य रूपं
                             लावण्यसारमसमोर्ध्वमनन्यसिद्धम् ।
                          दृग्भिः पिबन्ज्यनुसवाभिनवं दुराप-
                              मेकान्तधाम यशस: श्रिय ऐश्वरस्य ॥
                                        ( श्रीमद्भा १० । ४४ । १४)
‘इन भगवान् श्रीकृष्णका रूप सम्पूर्ण सौन्दर्यका सार हैसृष्टिमात्रमें किसीका भी रूप इनके रूपके समान नहीं है । इनका रूप किसीके सँवारने-सजाने अथवा गहने-कपड़ोंसे नहींप्रत्युत स्वयंसिद्ध है । इस रूपको देखते-देखते तृप्ति भी नहीं होतीक्योंकि यह नित्य नवीन ही रहता है । समग्र यश,सौन्दर्य और ऐश्वर्य इस रूपके आश्रित हैं । इस रूपके दर्शन बहुत ही दुर्लभ हैं । गोपियोंने पता नहीं कौन-सा तप किया थाजो अपने नेत्रोंके दोनोंसे सदा इनकी रूप-माधुरीका पान किया करती हैं !’

शुकदेवजी कहते हैं‒
                           निरीक्ष्य तावुत्तमपूरुषौ जना
                               मञ्चस्थिता  नागरराष्ट्रका नृप ।
                            प्रहर्षवेगोत्कलितेक्षणाननाः
                                पपुर्न तृप्ता   नयनैस्तदाननम् ॥
            पिबन्त इव चक्षर्भ्यां         लिहन्त इव जिह्वया ।
            जिघ्रन्त इव नासाभ्यां    श्श्लिष्यन्त इव बाहुभिः ॥
                                                              (श्रीमद्भा १० । ४३ । २०-२१)
‘परीक्षित् ! मंचोंपर जितने लोग बैठे थेवे मथुराके नागरिक और राष्ट्रके जन-समुदाय पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण और बलरामजीको देखकर इतने प्रसन्न हुए कि उनके नेत्र और मुखकमल खिल उठेउत्कण्ठासे भर गये । वे नेत्रोंद्वारा उनकी मुख-माधुरीका पान करते-करते तृप्त ही नहीं होते थेमानो वे उन्हें नेत्रोंसे पी रहे होंजिह्वासे चाट रहे होंनासिकासे सूँघ रहे हों और भुजाओंसे पकड़कर हृदयसे लगा रहे हों !’

भगवान् श्रीरामके सौन्दर्यको देखकर विदेह राजा जनक भी विदेह अर्थात् देहकी सुध-बुधसे रहित हो जाते हैं‒
मूरति मधुर   मनोहर देखी ।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी ॥
                   (मानस १ । २१५ । ४)
और कहते हैं‒
सहज   बिरागरूप  मनु   मोरा ।
थकित होत जिमि चंद चकोरा ॥
                      (मानस १ । २१६ । २)

वनमें रहनेवाले कोल-भील भी भगवान्‌के विग्रहको देखकर मुग्ध हो जाते हैं‒
करहिं जोहारु       भेंट धरि आगे ।
प्रभुहि बिलोकहिं   अति अनुरागे ॥
चित्र  लिखे  जनु  जहँ  तहँ  ठाढ़े ।
पुलक  सरीर   नयन   जल  बाढ़े ॥
                                                                    (मानस २ । १३५ । ३)

प्रेमियोंकी तो बात ही क्यावैरभाव रखनेवाले राक्षस खर-दूषण भी भगवान्‌के विग्रहकी सुन्दरताको देखकर चकित हो जाते हैं और कहते हैं‒
नाग असुर सुर नर मुनि जेते ।
देखे  जिते    हते   हम   केते ॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई ।
देखी   नहिं  असि  सुन्दरताई ॥
                             (मानस ३ । १९ । २)

          तात्पर्य यह कि भगवान्‌के दिव्य सौन्दर्यकी ओर प्रेमी, विरक्त, ज्ञानी, मूर्ख, वैरी, असुर और राक्षसतक सबका मन आकृष्ट हो जाता है ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे