।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण द्वितीया, वि.सं.–२०७१, गुरुवार
भगवान्‌का अलौकिक समग्ररूप



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
प्रश्न‒अधिभूतअधिदैव और अधियज्ञ‒ये तीनों अलौकिक कैसे हैं ?

उत्तर‒अधिभूत अर्थात् सम्पूर्ण पाञ्चभौतिक जगत् भगवान्‌का शरीर होनेसे अलौकिक ही हुआ‒

                        खं वायुमग्निं सलिल महीं च
                      ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन् ।
                       सरित्समुद्रांश्च हरे: शरीरं
                      यत्किञ्च     भूतं       प्रणमेदनन्यः ॥
                                                                           (श्रीमद्भा ११ । २ । ४१)
‘आकाशवायुअग्निजलपृथ्वीग्रह-नक्षत्रजीव-जन्तुदिशाएँवृक्षनदियाँ, समुद्र‒सब-के-सब भगवान्‌के ही शरीर हैं‒ऐसा मानकर भक्त सभीको अनन्यभावसे प्रणाम करता है ।’

भगवान्‌ने अर्जुनको अपना जो विराट्‌रूप दिखाया थावह दिव्य (अलौकिक) था‒‘नानाविधानि दिव्यानि’(गीता ११ । ५)‘अनेकदिव्याभरणं दिव्यानेकोद्यतायुधम्’(गीता ११।१०)‘दिव्यमाल्याम्बरधरं दिव्यगन्धानुलेपनम्’(गीता ११ । ११)‘ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान्’ (गीता ११ । १५) । वह दिव्य विराट्‌रूप भगवान्‌ने अपने शरीरमें ही दिखाया था‒
भगवान्‌के वचन हैं‒‘मम देहे गुडाकेश’ (११ । ७)

सञ्जयके वचन हैं‒‘अपश्यदेवदेवस्य शरीरे’ (११।१३)

अर्जुनके वचन हैं‒‘पश्यामि देवांस्तव देव देहे’ (११।१५)

अतः भगवान्‌का ही विराट्‌रूप होनेसे यह पाञ्चभौतिक जगत् भी अलौकिक ही है । भगवान्‌ने अपनी विभूतियोंको भी दिव्य कहा है‒‘हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (१० । १९)‘नान्तोऽस्ति मम दिव्यानां विभूतीनां परन्तप’ (१० । ४०) । अर्जुनने भी कहा है‒‘वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः’ (१०।१६) । परन्तु जीवको अज्ञानवश अपनी बुद्धिसे राग-द्वेषके कारण यह जगत् लौकिक दीखता है । इसलिये जगत् न तो महात्माकी दृष्टिमें है और न भगवान्‌की दृष्टिमें हैप्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है । महात्माकी दृष्टिमें सब कुछ भगवान् ही हैं‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९)भगवान्‌की दृष्टिमें सत्-असत् सब कुछ वे ही हैं‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९),पर जीवने राग-द्वेषके कारण जगत्‌को अपनी बुद्धिमें धारण कर रखा है‒‘ययेदं धार्यते जगत्’ (गीता ७ । ५) ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे