।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण तृतीया, वि.सं.–२०७१, शुक्रवार
भगवान्‌का अलौकिक समग्ररूप



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
अधिदैव अर्थात् ब्रह्माजी आदि सभी देवता,अलौकिकदिव्य हैं । अधियज्ञ अर्थात् अन्तर्यामी भगवान् सबके हृदयमें रहते हुए भी निर्लिप्त होनेके कारण अलौकिक हैं‒
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया  समानं वृक्षं परिषस्वजाते ।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ॥
                                                                  (मुण्डक ३ । १ । १श्वेताश्वतर ४ । ६)

‘एक साथ रहनेवाले तथा परस्पर सखाभाव रखनेवाले दो पक्षी‒जीवात्मा और परमात्मा एक ही वृक्ष‒शरीरका आश्रय लेकर रहते हैं । उन दोनोंमेंसे एक (जीवात्मा) तो उस वृक्षके सुख-दुःखरूप कर्मफलोंका स्वाद ले-लेकर उपभोग करता हैपर दूसरा (परमात्मा) न खाता हुआ केवल देखता रहता है ।’

समग्ररूप बतानेका तात्पर्य है कि जड-चेतनसत्-असत् जो कुछ भी हैवह सब भगवान्‌का ही स्वरूप है‒‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । इसलिये भगवान्‌ने समग्ररूप वर्णनके आदि और अन्तमें ‘माम्’ पद दिया है‒‘मामाश्रित्य’ (गीता ७ । २९) और ‘मां ते विदुः’ (गीता ७ । ३०) । सब कुछ भगवान् ही हैं‒इस प्रकार जो मनुष्य भगवान्‌के समग्ररूपको जान लेते हैंवे ‘युक्तचेता’ हैं । ऐसे युक्तचेता भक्त अन्तकालमें मनके विचलित होनेपर भी योगभ्रष्ट नहीं होतेप्रत्युत भगवान्‌को ही प्राप्त होते हैं‒‘प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः’ । कारण कि उनकी दृष्टिमें जब भगवान्‌के सिवाय किंचिन्मात्र भी दूसरी सत्ता है ही नहींतो फिर मनके विचलित होनेका प्रश्न ही पैदा नहीं होता । दूसरी सत्ताकी मान्यता न होनेके कारण उनका मन जहाँ जायगापरमात्मामें ही जायगाफिर उनका मन कैसे विचलित होगा और मनके विचलित हुए बिना वे योगभ्रष्ट कैसे होंगे कारण कि योगसे मनके विचलित होनेपर ही मनुष्य योगभ्रष्ट होता है‒‘योगाच्चलितमानस’(गीता ६ । ३७) । इसलिये भगवान्‌ने कहा है‒
अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यश: ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                                             ( गीता ८ । १४)
‘हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता हैउस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’

एक मार्मिक बात है कि जबतक साधक एक भगवान्‌की सत्ताके सिवाय दूसरी सत्ता मानेगातबतक उसका मन सर्वथा निरुद्ध नहीं हो सकता । कारण कि जबतक अपनेमें दूसरी सत्ताकी मान्यता हैतबतक रागका सर्वथा नाश नहीं हो सकता और रागका सर्वथा नाश हुए बिना मन सर्वथा निर्विषय नहीं हो सकता । रागके रहते हुए मनका सीमित निरोध होता हैजिससे लौकिक सिद्धियोंकी प्राप्ति होती हैवास्तविक तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती । दूसरी सत्ताकी मान्यता रहते हुए जो मन निरुद्ध होता हैउसमें व्युत्थान होता है अर्थात् उसमें समाधि और व्युत्थान‒ये दो अवस्थाएँ होती हैं । कारण कि दूसरी सत्ता माने बिना दो अवस्थाएँ सम्भव ही नहीं हैं । दूसरी सत्ताकी मान्यता न रहनेके कारण भक्तका प्रेम भी अनन्य होता है । अत: जैसे व्यवहारमें एकता करना महान् गलती हैऐसे ही तत्त्व (चिन्मय सत्ता) में भेद करना भी महान् गलती है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे