।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७१, रविवार
भगवान्‌का अलौकिक समग्ररूप



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
वास्तवमें लौकिक-अलौकिकका विभाग राग-द्वेषके कारण ही है । राग-द्वेष न हो तो सब कुछ अलौकिक (चिन्मय) ही है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ । कारण कि लौकिककी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है । राग-द्वेषके कारण ही लौकिककी सत्ता और महत्ता दीखती है । राग-द्वेषके कारण ही जीवने भगवत्सरूप संसारको भी लौकिक बना दिया और खुद भी लौकिक बन गया ! इसलिये भगवान्‌ने राग-द्वेषको साधकका महान् शत्रु बताया‒
इन्द्रियस्येन्द्रिस्यार्थे  रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥
                                                                             (गीता ३ । ३४)
‘इन्द्रिय इन्द्रियके अर्थमें अर्थात् प्रत्येक इन्द्रियके प्रत्येक विषयमें मनुष्यके राग और द्वेष व्यवस्थासे (अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर) स्थित हैं । मनुष्यको उन दोनोंके वशमें नहीं होना चाहियेक्योंकि वे दोनों ही इसके (पारमार्थिक मार्गमें विघ्र डालनेवाले) शत्रु हैं ।’
काम  एव  क्रोध     एष    रजोगुणसमुद्धवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् ॥
                                                                              (गीता ३ । ३७)
‘रजोगुणसे उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है । यह बहुत खानेवाला और महापापी है । इस विषयमें तू इसको ही वैरी जान ।’

‘क्षर’ (नाशवान्) की मुख्यता माननेसे जीव असुर बन जाता है‘अक्षर’ (अविनाशी) की मुख्यता माननेसे जीव ज्ञानी बन जाता है और ‘पुरुषोत्तम’ (समग्र-भगवान्) की मुख्यता माननेसे जीव प्रेमी बन जाता है । प्रेमी बननेसे भक्त और भगवान्‌के बीच प्रेमका आदान-प्रदान होता है । जैसे बच्चेकी चेष्टा माँको और माँकी चेष्टा बच्चेको प्रसन्न करनेवाली होती हैऐसे ही भक्तकी चेष्टा भगवान्‌को और भगवान्‌की चेष्टा भक्तको प्रसन्न करनेवालीआनन्द देनेवालीप्रेमरसकी वृद्धि करनेवाली होती है । प्रेमी और प्रेमास्पदकी इस अभिन्नताको गोस्वामीजी महाराजने बड़े सुन्दर ढंगसे कहा है‒
गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न ।
                                                                                 (मानसबाल १८)
अर्थात् जो वाणी तथा उसके अर्थ और जल तथा उसकी लहरके समान कहनेमें ही अलग-अलग दीखते हैंपर वास्तवमें एक ही हैं । यहाँ गोस्वामीजीने पहले स्त्रीवाचक ‘गिरा’ शब्द देकर फिर पुरुषवाचक ‘अरथ’ शब्द दिया है और उसके बाद पहले पुरुषवाचक ‘जल’ शब्द देकर फिर स्त्रीवाचक ‘बीचि’ शब्द दिया है । इससे यह तात्पर्य निकलता है कि स्त्रीवाचक ‘सीता’ और पुरुषवाचक ‘राम’दोनों अभिन्न हैं । अत: चाहे ‘सीता’ पहले कहो (सीताराम कहो),चाहे ‘राम’ पहले कहो (रामसीता कहो)‒दोनोंमें कोई फर्क नहीं है* । प्रेममें कोई भेद नहीं रहता । प्रेममें भक्त और भगवान्‒दोनों समान हैं‒
तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् ।
                                                                   (नारदभक्ति ४१)
‘भगवान्‌में और उनके भक्तमें भेदका अभाव है ।’

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* भरतजी प्रेम-विभोर होकर ‘रामसिय-रामसिय’ नामका उच्चारण करते हैं‒
    भरत तीसरे  पहर  कहँ     कीन्ह   प्रबेसु   प्रयाग ।
    कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग ॥
                                                                                          (मानसअयोध्या २०३)