।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण सप्तमी, वि.सं.–२०७१, सोमवार
अलौकिक साधन-भक्ति



संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके परमात्माको प्राप्त करनेके तीन मुख्य साधन हैं‒कर्मयोगज्ञानयोग और भक्तियोग । भागवतमें भगवान् कहते हैं‒
योगास्त्रयो  मया  प्रोक्ता   नृणां  श्रेयोविधित्सया ।
ज्ञानं कर्म च भक्तिश्च नोपायोऽन्योऽस्ति कुत्रचित् ॥
                                                                       (श्रीमद्भा ११ । २० । ६)
‘अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्योंके लिये मैंने तीन योगमार्ग (भगवद्गीतामें) कहे हैं‒ज्ञानयोगकर्मयोग और भक्तियोग* । इन तीनोंके सिवाय दूसरा कोई कल्याणका मार्ग नहीं है ।’

कर्मयोग तथा ज्ञानयोगमें संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी मुख्यता है और भक्तियोगमें भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़नेकी मुख्यता है । इसलिये कर्मयोग तथा ज्ञानयोग ‘लौकिक साधन’ हैं और भक्तियोग ‘अलौकिक साधन’ है । लौकिक साधन ‘विवेकमार्ग’ है और अलौकिक साधन‘विश्वासमार्ग’ है । विवेकमार्गमें विवेककी मुख्यता और श्रद्धा-विश्वासकी गौणता है तथा विश्वासमार्गमे श्रद्धा-विश्वासकी मुख्यता और विवेककी गौणता है । संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेमें विवेक काम आता है और भगवान्‌से सम्बन्ध जोड़नेमें विश्वास काम आता है । साधकसे प्रायः यह भूल होती है कि वह विवेकमें विश्वास और विश्वासमें विवेक मिलाता है अर्थात् विवेकमार्गमे विश्वासकी मुख्यता और विश्वासमार्गमें विवेककी मुख्यता करता है । इस कारण उसका साधन जल्दी सिद्ध नहीं होता । संसारसे मेरा सम्बन्ध है कि नहीं है‒इसमें विश्वास नहीं करना हैप्रत्युत विवेक करना है । भगवान् हैं कि नहीं हैं और मेरे हैं कि नहीं हैं‒इसमें विवेक नहीं करना है,प्रत्युत विश्वास करना है । कारण कि जगत् तथा जीव विचारके विषय हैं और भगवान् केवल विश्वास (मान्यता) के विषय हैं । विवेक (विचार) वहीं लगता हैजहाँ सन्देह होता है और सन्देह अल्प ज्ञानमें अथवा अधूरे ज्ञानमें होता है । तात्पर्य है कि जिसके विषयमें हमारा आंशिक ज्ञान है अर्थात् कुछ जानते हैंकुछ नहीं जानतेवहीं विवेक चलता है । परन्तु जिसके विषयमें कुछ नहीं जानतेवहाँ विश्वास ही चलता है । विश्वासमें सन्देह नहीं होता । विश्वास करने अथवा न करनेमें सब स्वतन्त्र हैं* 

ज्ञानी संसारके साथ माने हुए सम्बन्धका त्याग करता है और भक्त एक भगवान्‌के सिवाय अन्य किसीसे अपना सम्बन्ध मानता ही नहीं । दूसरे शब्दोंमें ज्ञानी ‘मैं’ व ‘मेरा’का त्याग करता है और भक्त ‘तू’ व ‘तेरा’ को स्वीकार करता है । इसलिये ज्ञानी पदार्थ व क्रियाका त्याग करता है और भक्त पदार्थ व क्रियाको भगवान्‌के अर्पण करता है (गीता १ । २६-२७) अर्थात् उनको अपना न मानकर भगवान्‌का और भगवत्स्वरूप मानता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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          * गीतामें भगवान्‌ने ज्ञानयोगकर्मयोग और भक्तियोग‒इसी क्रमसे उपदेश दिया है ।

         वेदपुराण आदि ग्रन्थोंसेभगवान्‌के भक्तोंसे अथवा कोई दुःख आनेसे भगवान्‌पर विश्वास हो जाता है । जब कोई आफत आती है और उससे बचनेका कोई उपाय नहीं दीखताकोई सहारा नहीं दीखता तथा उससे बचनेके लिये किये गये सब प्रयत्न फेल हो जाते हैंतब मनुष्यको भगवान्‌पर विश्वास करना ही पड़ता है ! भगवान्‌को पुकारना ही पड़ता है !