।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७१, मंगलवार
अलौकिक साधन-भक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
त्यागकी अपेक्षा अर्पण सुगम होता है । कारण किजिस वस्तुमें मनुष्यकी सत्यत्व और महत्त्वबुद्धि होती हैउसको मिथ्या समझकर यों ही त्याग देनेकी अपेक्षा किसी व्यक्तिके अर्पण कर देनाउसकी सेवामें लगा देना सुगम पड़ता है । फिर जो परम श्रद्धास्पदप्रेमास्पद भगवान् हैंउनको अर्पण करनेकी सुगमताका तो कहना ही क्या ! क्योंकि सम्पूर्ण वस्तुएँ (मात्र संसार) पहलेसे ही भगवान्‌की हैं । उनको भगवान्‌के अर्पण करना केवल अपनी भूल मिटाना है । संसारको भगवान्‌का मानते ही संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है । अत: संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये भक्तको विवेककी जरूरत नहीं है । तात्पर्य है कि भक्त संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद नहीं करताप्रत्युत उसको भगवान्‌का और भगवत्स्वरूप मानता है ।

विवेक पारमार्थिक विषयमें भी काम करता है और लौकिक विषयमें भी । लौकिक विषयमें विवेकका उपयोग करके मनुष्य बड़ा वैज्ञानिकजजवकील आदि बन सकता हैतरह-तरहके आविष्कार कर सकता हैपर तत्त्वप्राप्ति नहीं कर सकता । कारण कि राग साथमें रहनेसे लौकिक विषयोंका विवेक भोग और संग्रहका महत्त्व बढ़ाकर संसारमें फँसाता हैपापोंमें लगाकर पतन करता है । तात्पर्य है कि संसारकी सत्ता और महत्ता साथमें रहनेसे विवेक बहुत घातकअनर्थका हेतु होता है । वास्तवमें लौकिक विषयोंका विवेक ‘अविवेक’ ही है । पारमार्थिक विषयका विवेक अर्थात् सत्-असत्‌का विवेक ही वास्तविक विवेक है* । सत्-असत्‌का विवेक होनेसे पारमार्थिक अथवा लौकिक दोनों कार्य ठीक होते हैंक्योंकि विवेकी मनुष्यकी बुद्धि हरेक विषयमें प्रविष्ट होती है ।

पारमार्थिक विवेकवाला मनुष्य लौकिक विषयोंका भी ठीक ढंगसे उपयोग कर सकता है । परन्तु केवल लौकिक विवेकवाला मनुष्य लौकिक विषयोंका भी ठीक ढंगसे उपयोग नहीं कर पाता‒
उपभोक्तुं न शक्नोति   श्रियं  प्राप्यापि मानवः ।
आकण्ठजलमग्नोऽपि श्वा लेढीति स्वजिह्वया ॥

 ‘प्रारब्धवश धन-सम्पत्ति प्राप्त करके भी अविवेकी मनुष्य उसका ठीक ढंगसे उपभोग नहीं कर सकताजैसे‒गलेतक जलमें डूबे होनेपर भी कुत्ता जीभसे ही जलको चाटता है (उसको सीधे जल पीना आता ही नहीं) ।’

वास्तविक विवेक वैराग्यका जनक है । यदि वैराग्य न हो तो विवेक वास्तविक (असली) नहीं है । ‘मेरा असत्‌के साथ सम्बन्ध है ही नहीं’इस विवेकसे वैराग्य होता ही है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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                                    * प्रवृत्तिं  च   निवृत्तिं   च    कार्याकार्ये   भयाभये ।
        बन्धं मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्त्विकी ॥
                                                                                                   (गीता १८ । ३०)
                 ‘हे पृथानन्दन ! जो बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्तिकोकर्तव्य और अकर्तव्यकोभय और अभयको तथा बन्धन और मोक्षको जानती हैवह बुद्धि सात्त्विकी है ।’