।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण दशमी, वि.सं.–२०७१, गुरुवार
एकादशीव्रत कल है
अलौकिक साधन-भक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
दार्शनिकोंकी दृष्टिमें उनका अपना मत साध्य हैजो वास्तवमें साध्य न होकर साधन-तत्त्व है* । वास्तविक साध्य (समग्र परमात्मा) में कोई दार्शनिक मतभेद नहीं है । सूक्ष्म अहम् रहनेसे दार्शनिकोंको अपना मत (मार्ग) श्रेष्ठ दीखता है,दूसरेका मत उतना श्रेष्ठलाभदायक नहीं दीखताऔर उनकी ऐसी मान्यता रहती है कि ज्ञानके बिना मुक्ति नहीं हो सकती या निष्कामकर्मके बिना मुक्ति नहीं हो सकती अथवा भक्तिके बिना मुक्ति नहीं हो सकती । इसलिये वे अपने मतका मण्डन और दूसरेके मतका खण्डन करते हैं । दूसरेके मतका खण्डन वे बुरी नीयतसे नहीं करतेप्रत्युत इस शुद्ध नीयतसे करते हैं कि लोग विपरीतगामी न होकर अपना कल्याण कर लें । लोगोंके कल्याणके उद्देश्यसे वे अपने मत (मार्ग) का प्रचार करते हैंक्योंकि उस मतका उन्होंने खुद अनुभव किया है और उसमें वे निःसन्देह हुए हैंउनको शान्ति मिली है । अतः उनका वैसा कहना उचित ही है । परन्तु उन दार्शनिकोंके अनुयायियोंमें प्रायः देहाभिमानके कारण अपने मतका आग्रह रहता है । आग्रह रहनेसे वे अपने मतका अनुसरण न करके दूसरे मतका खण्डन करते हैं और दूसरे मतको माननेवालोंसे द्वेष करते हैं । दूसरे मतको माननेसे भी कल्याण हो सकता है‒यह बात उनको जँचती ही नहीं ! उलटे वे दूसरे मतको भ्रम मानते हैं । वे ऐसा मानते हैं कि दूसरोंको हमारे मतमें आना ही पड़ेगातभी उनका कल्याण होगा ! उनका दूसरे मतको माननेवालोंसे जो द्वेष होता हैवह सामान्य सांसारिक राग-द्वेषसे भी मजबूत और भयंकर होता है । उस द्वेषके कारण वे दूसरे मतको सर्वथा मिटा देना चाहते हैं ! इस प्रकार लड़ाई दार्शनिकोंमें नहीं होतीप्रत्युत उनके अनुयायियोंमें होती है ।

अपने साधनके प्रति कृतज्ञतामहत्ताका भाव रहना दोष नहीं हैपर दूसरेके मतका खण्डन करना दोष है । इसलिये साधकको दूसरेके मतका खण्डन तथा अपने मतका आग्रह न करके अपने मतके अनुसार साधन करना चाहिये ।वह दूसरेके मतका खण्डन न करके अधिक-से-अधिक यह कह सकता है कि उस प्रणालीको मैं जानता नहीं ! अपनी अज्ञता कहनेमें दोष नहीं हैप्रत्युत अपना गुण कहनेमें दोष है । कारण कि अपनी अज्ञता (अपूर्णता) कहनेसे दूसरेमें पूर्णता दीखती है और अपना गुण कहनेसे दूसरेमें दोष दीखता है । इसलिये साधकको कभी भी अपनेको सिद्ध नहीं मानना चाहियेप्रत्युत सदा साधक ही मानना चाहिये । अपनेमें सिद्धिपूर्णता माननेसे उसका आगे बढ़ना रुक जायगा और अपने साथ धोखा भी हो जायगा अर्थात् अपनेमें कोई कमी भी होगी तो वह बनी रहेगी ।

प्रश्न‒क्या मुक्त होनेपर भी सूक्ष्म अहम् रहता है ?

उत्तर‒मुक्त होनेपर भी ज्ञानी (दार्शनिक) में सूक्ष्म अहम् रहता हैजिससे दार्शनिकोंमें परस्पर अलगाव,भिन्नताभेद रहता है । यह सूक्ष्म अहम् वास्तवमें अहङ्कारका संस्कार हैजो जन्म-मरणका कारण नहीं होता । गुणोंका संग ही जन्म-मरणका कारण होता है‒‘कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु’ (गीता १३ । २१) । मार्गका संग जन्म-मरणका कारण नहीं होता । मार्गका संग है‒जिस मार्गसे सिद्धि (मुक्ति) मिलीउस मार्गका संस्कारजो ‘सूक्ष्म अहम्‌’ कहलाता है ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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* साधन तो अलग-अलग होते हैंपर साधन-तत्त्व एक होता है ।