।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख कृष्ण त्रयोदशी, वि.सं.–२०७१, रविवार
अलौकिक साधन-भक्ति



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
भक्तमें ज्ञान और वैराग्य स्वतः आते हैंलाने नहीं पड़ते* । कारण कि ज्ञान और वैराग्य भक्तिके बेटे हैं और जहाँ माँ जायगीवहाँ बेटे जायँगे ही ! इसमें एक मार्मिक बात है कि भक्तमें जो ज्ञान और वैराग्य आते हैंवे ज्ञानीमें आनेवाले ज्ञान और वैराग्यसे भी विलक्षण होते हैं । जैसेज्ञान-मार्गमें तो निर्गुण ब्रह्मका ज्ञान होता हैपर भक्तिमार्गमें समग्रका ज्ञान होता हैक्योंकि भगवान् स्वयं भक्तको ज्ञान देते हैंइसी तरह ज्ञानमार्गमें वैराग्य होता है तो वस्तुके रहते हुए उसमें राग मिट जाता हैपर भक्तिमार्गमें वैराग्य होता है तो वस्तुकी स्वतन्त्र सत्ता ही मिट जाती है और वह भगवत्स्वरूप हो जाती है‒‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता ७ । १९),‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९ । १९) । कारण कि अधिभूत अर्थात् सम्पूर्ण पाञ्चभौतिक जगत् भी समग्र परमात्माका ही एक अंग है‒‘साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः’ (गीता ७ । ३०) ।

नारायण !     नारायण !!     नारायण !!!

‒‘सब जग ईश्वररूप है’ पुस्तकसे
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 * भक्तिः  परेशानुभवो   विरक्तिरन्यत्र  चैष  त्रिक  एककालः ।
    प्रपद्यमानस्य यथाश्नतः  स्युस्तुष्टिः पुष्टिः क्षुदपायोऽनुघासम् ॥
    इत्यच्युताङ्‌घ्रिं  भजतोऽनुवृत्त्या   भक्तिर्विरक्तिर्भगवतबोधः ।
    भवन्ति वै भागवतस्य राजंस्ततः परां शान्तिमुपैति साक्षात् ॥
                                                                                           ( श्रीमद्भा ११ । २ । ४२-४३)
‘जैसे भोजन करनेवालेको प्रत्येक ग्रासके साथ ही तुष्टिपुष्टि और क्षुधा-निवृत्ति‒ये तीनों एक साथ होते जाते हैंवैसे ही जो मनुष्य भगवान्‌की शरण लेकर उनका भजन करने लगता हैउसे भजनके प्रत्येक क्षणमें भगवान्‌के प्रति प्रेमअपने प्रेमास्पद प्रभुके स्वरूपका अनुभव और प्रभुके सिवाय अन्य सब वस्तुओंसे वैराग्य‒इन तीनोंकी एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है । राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्तिके द्वारा भगवान्‌के चरण-कमलोंका ही भजन करता हैउसे भक्तिवैराग्य और भगवत्प्रबोध‒ये तीनों अवश्य ही प्राप्त हो जाते हैं और वह भागवत हो जाता है तथा परमशान्तिका साक्षात् अनुभव करने लगता है ।’

  तेषां  सततयुक्तानां   भजतां   प्रीतिपूर्वकम् ।
    ददामि बुद्धियोगं तं     येन मामुपयान्ति ते ॥
    तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं           तमः ।
     नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥
                                                                                                (गीता १० । १०-११)
‘उन नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक मेरा भजन करनेवाले भक्तोंको मैं वह बुद्धियोग देता हूँ, जिससे उनको मेरी प्राप्ति हो जाती है । उन भक्तोंपर कृपा करनेके लिये ही उनके स्वरूपमें रहनेवाला मैं उनके अज्ञानजन्य अन्धकारको देदीप्यमान ज्ञानरूप दीपकके द्वारा सर्वथा नष्ट कर देता हूँ ।’

अमृत-बिन्दु-प्रकीर्ण

          भगवान्‌के वियोगसे होनेवाला दुःख (विरह) संसारक सुखसे भी बहुत अधिक आनन्द देनेवाला होता है ।

          जिसको भगवान्‌, शास्त्र, गुरुजन और जगत्‌से भय लगता है, वह वास्तवमें निर्भय हो जाता है ।

          हमसे अलग वही होगा, जो सदासे ही अलग है और मिलेगा वही, जो सदासे ही मिला हुआ है ।

          दूसरेकी प्रसन्नतासे मिली हुई वस्तु दूधके समान है, माँगकर ली हुई वस्तु पानीके समान है और दूसरेका दिल दुःखाकर ली हुई वस्तु रक्तके समान है ।

          भूलकी चिन्ता, पश्चात्ताप न करके आगेके लिये सावधान हो जाओ, जिससे फिर वैसी भूल न हो ।

          मिटनेवाली चीज एक क्षण भी टिकनेवाली नहीं होती ।                                  
                                                                                         ‒ ‘अमृत-बिन्दु’ पुस्तकसे