।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल एकादशी, वि.सं.–२०७१, शनिवार
मोहिनी एकादशी-व्रत (सबका)
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
इसका उत्तर यही है कि यहाँ उस यज्ञकी बात नहीं है,जिसमें सबका अधिकार नहीं । यहाँ यज्ञ’ का व्यापक अर्थ‒‘कर्तव्यकर्म’ लेना चाहिये । यज्ञ’ का इसी अर्थमें प्रयोग समझना चाहिये । स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ द्वारा भगवान्‌ने आगे चलकर यही बताया है कि ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्र‒सभी अपने-अपने कर्मद्वारा उनका पूजन करें । इसी कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञके साथ प्रजाकी सृष्टि करके प्रजापतिने कहा‒इसके द्वारा तुम सबकी वृद्धि करो और यही तुम्हारी इष्ट कामनाकी पूर्ति करनेवाला हो‒
सहयज्ञा प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥

परंतु साथ ही भगवान् कहते हैं‒‘इष्टकामनाके साथ अपना सम्बन्ध मत जोड़ो । तुम यज्ञके द्वारा देवताओंका पूजन करो ।’ जैसे गीता अध्याय २ श्लोक ४५ में भगवान् अर्जुनको निर्योगक्षेम आत्मवान्’ बननेको कहते हैं और ९वें अध्यायके २२वेंमें कहते हैं‒‘योगक्षेमं वहाम्यहम्’ तुम्हारे योगक्षेमका वहन मैं करूँगातू उसकी चिन्ता छोड़ दे ।’ इसी प्रकार यहाँ भी वे कहते हैं‒‘देवताओंका तुम पूजन करोपर देवताओंसे कुछ चाहो मत । देवता तुम्हारा काम करेंपर यह तुम उनसे चाहो मत ।’ चाहनेसे सम्बन्ध जुड़ जाता है । चाहयुक्त कर्म हो जाता है तुच्छ’ । उदाहरणके लिये‒गीताका विवेचन किया हमनेभिक्षा दे दी आपनेदोनोंका काम हो गया । पर गीताका विवेचन किया हमने और उसके साथ यह स्वार्थका सम्बन्ध जोड़ लिया कि गीताकी बात सुनानेसे हमें रोटी मिल जायगी तो हमारा यह काम तुच्छ हो जायगा । किसी भी क्रियाके साथ स्वार्थका सम्बन्ध जोड़ लेनेसे वह क्रिया तुच्छ हो जाती हैनिकृष्ट हो जाती हैबन्धनकारक हो जाती है । कोई पूछे‒‘परम श्रेय कैसे होगा ? उत्तर है‒‘अपने कर्तव्यका पालन करोपरंतु लोकहितके लिये । उससे अपने स्वार्थका सम्बन्ध मत जोड़ो ।’

क्या बतायें सज्जनो ! आप सब काम करते हैं । घरोंमें बहनेंमाताएँभाईबच्चेछोटे-बड़े सब काम करते हैंपरंतु बड़ी भारी भूल होती है यह कि आसक्तिकामना और स्वार्थके साथ हमलोग सम्बन्ध जोड़ लेते हैंकिंतु उससे लाभ कुछ नहीं होता । लौकिक लाभ भी नहीं होताफिर अलौकिककी तो बात ही क्या । इच्छावालेको लोग अच्छा भी नहीं कहते । कहते हैं‒‘अमुक बड़ा स्वार्थी हैपेटू है, चट्टू है ।’ उसके चाहनेपर हम कौन-सा अधिक दे देंगे उलटा कम देंगे । स्वार्थका सम्बन्ध रखनेवालेको अधिक देना कोई नहीं चाहता । किसी साधु-ब्राह्मणको कुछ देंगे तो त्यागी देखकर ही देंगे या भोगी-रागी समझकर देंगे घरमें भी रागीसेभोगीसे वस्तु छिपायी जाती है । जो रागी नहीं होगाउसके सामने वस्तु बेरोक-टोक आयेगी । रागीको वस्तु मिलनेमें भी बाधा लगेगी और कल्याणमें तो महती बाधा लगेगी ही । इसके विपरीत अपना कर्तव्य समझकर सेवा करोगे तो सेवा तो मूल्यवती होगी और वस्तु अनायासमें मिलेगी । आराम मुफ्तमें मिलेगा । मान-सत्कार-बड़ाई मुफ्तमें मिलेगी । पर चाहोगे तो फँस जाओगे । यह बात गीता ग्रन्थि खोलकर बताती है । तुम जो काम करोइस रीतिसे करो ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे