।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल त्रयोदशी, वि.सं.–२०७१, सोमवार
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
इसलिये भगवान् कहते हैं‒
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
                                                                                  (१७ । २३)

सबका मूल है परमात्मापरमात्मासे प्रकट हुए वेद । वेदोंने बतायी क्रियाकी विधि । क्रियासे कर्म किया ब्राह्मणोंने अर्थात् प्रजाने । उन कर्मोंसे हुआ यज्ञउस यज्ञसे हुई वर्षा । वर्षासे हुआ अन्नअन्नसे हुए प्राणी और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्योंने यज्ञ किया । यज्ञ पशु-पक्षी तो करनेसे रहे । ये वृक्ष,घास और पहाड़‒यज्ञ थोड़े ही कर सकते हैं मनुष्य ही कर सकते हैं । इस प्रकार यह सृष्टिचक्र चल पड़ा । वह परमात्मा सर्वगत ब्रह्म नित्य यज्ञमें प्रतिष्ठित है । परमात्माकी सर्वगतताके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
                                                                         (गीता ९ । ४)
अव्यक्तरूपसे मैं सर्वत्र व्यास हूँ ।’

इसपर शंका होती है कि भगवान् जब सर्वगत हैंतब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा क्या वे अन्यत्र नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं वे तो सभी जगह नित्य हैं । फिर यज्ञमें क्या विशेषता है इसका उत्तर यह है कि यज्ञमें परमात्मा प्राप्त होते हैं । जमीनमें सर्वत्र जल हैपर वह मिलता है कुएँमेंसब जगह नहीं मिलता । पाइपमें सब जगह जल भरा रहता हैपर वह मिलता है वहींजहाँ कल लगी होती है । सब जगह जल है नहींऐसी बात हम थोड़े ही कह सकते हैं । पर सर्वत्र वह मिलता नहीं । इसीलिये सर्वगत ब्रह्मको यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित कहा गया है । यज्ञ कौन-सा कर्तव्य-कर्ममात्रजो निष्कामभावसे किया जायवही यज्ञ’ है ।

अब देखियेयज्ञकी परिभाषा ध्यानमें आ गयी और उस यज्ञमें परमात्मा मिलते हैं‒यह बात भी समझमें आ गयी । उस यज्ञके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
यज्ञशिष्टाशिन सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
                                                 (गीता ३ । १३)

यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
                                              (गीता ४ । ३१)

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यक्षात्वा मोशसेऽशुभात् ।
                                                  (गीता ४ । १६)

इसलिये कोई परमात्माकी प्राप्ति करना चाहे तो वह यज्ञ करे । जो यज्ञ नहीं करताउसके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
एवं   प्रवर्तितं   चक्रं    नानुवर्तयतीह   यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
                                                                  (गीता ३ । १६)
  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे