(गत ब्लॉगसे आगेका)
इसलिये भगवान् कहते हैं‒
ॐतत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
(१७ । २३)
सबका मूल है परमात्मा, परमात्मासे प्रकट हुए वेद । वेदोंने बतायी क्रियाकी विधि । क्रियासे कर्म किया ब्राह्मणोंने अर्थात् प्रजाने । उन कर्मोंसे हुआ यज्ञ, उस यज्ञसे हुई वर्षा । वर्षासे हुआ अन्न; अन्नसे हुए प्राणी और उन्हीं प्राणियोंमेंसे मनुष्योंने यज्ञ किया । यज्ञ पशु-पक्षी तो करनेसे रहे । ये वृक्ष,घास और पहाड़‒यज्ञ थोड़े ही कर सकते हैं ? मनुष्य ही कर सकते हैं । इस प्रकार यह सृष्टिचक्र चल पड़ा । वह परमात्मा सर्वगत ब्रह्म नित्य यज्ञमें प्रतिष्ठित है । परमात्माकी सर्वगतताके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
(गीता ९ । ४)
‘अव्यक्तरूपसे मैं सर्वत्र व्यास हूँ ।’
इसपर शंका होती है कि भगवान् जब सर्वगत हैं, तब उन्हें केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा ? क्या वे अन्यत्र नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं ? वे तो सभी जगह नित्य हैं । फिर यज्ञमें क्या विशेषता है ? इसका उत्तर यह है कि यज्ञमें परमात्मा प्राप्त होते हैं । जमीनमें सर्वत्र जल है, पर वह मिलता है कुएँमें, सब जगह नहीं मिलता । पाइपमें सब जगह जल भरा रहता है, पर वह मिलता है वहीं; जहाँ कल लगी होती है । सब जगह जल है नहीं, ऐसी बात हम थोड़े ही कह सकते हैं । पर सर्वत्र वह मिलता नहीं । इसीलिये सर्वगत ब्रह्मको यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित कहा गया है । यज्ञ कौन-सा ? कर्तव्य-कर्ममात्र, जो निष्कामभावसे किया जाय, वही ‘यज्ञ’ है ।
अब देखिये, यज्ञकी परिभाषा ध्यानमें आ गयी और उस यज्ञमें परमात्मा मिलते हैं‒यह बात भी समझमें आ गयी । उस यज्ञके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
यज्ञशिष्टाशिन सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः ।
(गीता ३ । १३)
यज्ञशिष्टामृतभुजो यान्ति ब्रह्म सनातनम् ।
(गीता ४ । ३१)
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यक्षात्वा मोशसेऽशुभात् ।
(गीता ४ । १६)
इसलिये कोई परमात्माकी प्राप्ति करना चाहे तो वह यज्ञ करे । जो यज्ञ नहीं करता, उसके विषयमें भगवान् कहते हैं‒
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
(गीता ३ । १६)
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
|