कर्मयोगमें दो शब्द हैं‒कर्म और योग । कर्मका अर्थ है करना और योगका अर्थ है समता‒‘समत्वं योग उच्यते’(गीता २ । ४८) अर्थात् समतापूर्वक निष्कामभावसे शास्त्रविहित कर्मोंका आचरण ही कर्मयोग कहलाता है । कर्मयोगमें निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग तथा फल और आसक्तिका त्याग करके विहित कर्मोंका आचरण करना चाहिये । भगवान्ने कहा है‒
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽसत्वकर्मणि ॥
(गीता २ । ४८)
‘तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार है, उसके फलोंमें कभी नहीं । इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ।’
मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर, पदार्थ, धन-सम्पत्ति आदि जो कुछ भी हमारे पास है, वह सब-का-सब संसारसे मिला है । अतः वह ‘अपना’ और ‘अपने लिये’ न होकर संसारका एवं संसारके लिये ही है‒ऐसा मानते हुए निःस्वार्थभावसे दूसरोंका हित करने, उनको सुख पहुँचाने-(संसारकी सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देने-) को कर्मयोग कहते हैं ।
पर हित सरिस धर्म नहि भाई ।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई ॥
(मानस ७ । ४१ । १)
परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
(मानस ३ । ३१ । ५)
कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकता; क्योंकि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है । अतः प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखनेवाला कोई भी प्राणी क्रियारहित कैसे रह सकता है (गीता ३ । ५) । यद्यपि पशु, पक्षी तथा वृक्ष आदि योनियोंमें भी स्वाभाविक क्रियाएँ होती रहती हैं; परंतु फल और आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यबुद्धिसे कर्म करनेकी क्षमता उनमें नहीं है, केवल मनुष्ययोनिमें ही ऐसा ज्ञान सुलभ है । वस्तुतः मनुष्य-शरीरका निर्माण ही कर्मयोगके आचरणके लिये हुआ है और इसमें सम्पूर्ण सामग्री केवल कर्म करनेके लिये ही है । जैसा कि सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी प्रजाओंको उपदेश देते हुए ब्रह्माजीके शब्दोंमें भगवान् कहते हैं‒
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्* ॥
(गीता ३ । १०)
‘तुम यज्ञ-(कर्तव्यकर्म-) के द्वारा उन्नतिको प्राप्त करो,यह (कर्तव्यकर्म) तुम्हें कर्तव्यकर्म करनेकी सामग्री प्रदान करनेवाला हो ।’ मनुष्यको प्रत्येक कर्म कर्तव्यबुद्धिसे ही करना चाहिये (गीता १० । १) । शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य है‒केवल इस भावसे ममता, आसक्ति और कामनाका त्याग कर कर्म करनेसे वे कर्म बन्धनकारक नहीं होते, प्रत्युत मुक्ति देनेवाले होते हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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* ‘इष्टकामधुक्’ का अर्थ है ‘कर्तव्यकर्म करनेकी सामग्री प्रदान करनेवाला ।’ यहाँ यदि इष् धातुसे ‘इष्ट’ पदकी निष्पत्ति करेंगे तो इसी श्लोकके पहिले उपक्रम (३ । ९) से विरोध होगा; क्योंकि उसमें स्पष्ट कहा है कि कर्तव्यके लिये कर्म करनेके अतिरिक्त कर्म करनेसे बन्धन होगा । फिर अपनी बातको ब्रह्माजीके वचनोंसे पुष्ट करने-हेतु यहाँ कर्तव्यकर्म करनेसे ‘इच्छित भोग-पदार्थकी प्राप्ति करनेवाला’ यह अर्थ-संगत प्रतीत नहीं होता एवं इसी प्रसंगसे उपसंहारमें ‘भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्’ (३ । १३) से भी विरोध होगा । अतएव ‘इष्ट’ पद देवपूजासंगतिकरणार्थक ‘यज्’ धातुसे निष्पन्न है, जिसका अर्थ है‒कर्तव्यकर्मसे भावित । यज्+क्त, ‘वचिस्वपि॰’ से संप्रसारण, ‘व्रश्चभ्रस्ज॰’से ‘ज्’ को ‘ष्’ तत: ष्टुत्व‒इस प्रकार ‘इष्ट’ शब्द बना है । इसी प्रकार ३ । १२में भी इष्ट शब्द ‘यज्’ धातुसे ही निष्पन्न समझना चाहिये । ‘काम्यन्त इति कामाः’ इस व्युत्पत्तिसे ‘काम’ शब्दका अर्थ पदार्थ एवं सामग्री है ।
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