।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
वैशाख पूर्णिमावि.सं.२०७१बुधवार
श्रीबुद्ध-जयन्तीवैशाखस्नान समाप्त
भगवान्‌ विवस्वान्‌को उपदिष्ट कर्मयोग



कर्मयोगमें दो शब्द हैंकर्म और योग । कर्मका अर्थ है करना और योगका अर्थ है समतासमत्वं योग उच्यते(गीता २ । ४८) अर्थात् समतापूर्वक निष्कामभावसे शास्त्रविहित कर्मोंका आचरण ही कर्मयोग कहलाता है । कर्मयोगमें निषिद्ध कर्मोंका सर्वथा त्याग तथा फल और आसक्तिका त्याग करके विहित कर्मोंका आचरण करना चाहिये । भगवान्‌ने कहा है
कर्मण्येवाधिकारस्ते  मा  फलेषु   कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽसत्वकर्मणि ॥
                                               (गीता २ । ४८)

तेरा कर्म करनेमें ही अधिकार हैउसके फलोंमें कभी नहीं । इसलिये तू कर्मोंके फलका हेतु मत बन तथा तेरी कर्म न करनेमें भी आसक्ति न हो ।

मनबुद्धिइन्द्रियाँशरीरपदार्थधन-सम्पत्ति आदि जो कुछ भी हमारे पास हैवह सब-का-सब संसारसे मिला है । अतः वह अपना’ और अपने लिये’ न होकर संसारका एवं संसारके लिये ही हैऐसा मानते हुए निःस्वार्थभावसे दूसरोंका हित करनेउनको सुख पहुँचाने-(संसारकी सामग्रीको संसारकी ही सेवामें लगा देने-) को  कर्मयोग कहते हैं ।
पर हित सरिस धर्म नहि भाई ।
पर पीड़ा  सम  नहिं  अधमाई ॥
                                         (मानस ७ । ४१ । १)

परहित बस जिन्ह के मन माहीं ।
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
                                        (मानस ३ । ३१ । ५)

कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रह सकताक्योंकि प्रकृति निरन्तर क्रियाशील है । अतः प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखनेवाला कोई भी प्राणी क्रियारहित कैसे रह सकता है (गीता ३ । ५) । यद्यपि पशुपक्षी तथा वृक्ष आदि योनियोंमें भी स्वाभाविक क्रियाएँ होती रहती हैंपरंतु फल और आसक्तिका त्याग करके कर्तव्यबुद्धिसे कर्म करनेकी क्षमता उनमें नहीं हैकेवल मनुष्ययोनिमें ही ऐसा ज्ञान सुलभ है । वस्तुतः मनुष्य-शरीरका निर्माण ही कर्मयोगके आचरणके लिये हुआ है और इसमें सम्पूर्ण सामग्री केवल कर्म करनेके लिये ही है । जैसा कि सृष्टिके प्रारम्भमें अपनी प्रजाओंको उपदेश देते हुए ब्रह्माजीके शब्दोंमें भगवान् कहते हैं
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्*  ॥
                                                   (गीता ३ । १०)

तुम यज्ञ-(कर्तव्यकर्म-) के द्वारा उन्नतिको प्राप्त करो,यह (कर्तव्यकर्म) तुम्हें कर्तव्यकर्म करनेकी सामग्री प्रदान करनेवाला हो । मनुष्यको प्रत्येक कर्म कर्तव्यबुद्धिसे ही करना चाहिये (गीता १० । १) । शास्त्रविहित कर्म करना कर्तव्य हैकेवल इस भावसे ममताआसक्ति और कामनाका त्याग कर कर्म करनेसे वे कर्म बन्धनकारक नहीं होतेप्रत्युत मुक्ति देनेवाले होते हैं ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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          * इष्टकामधुक् का अर्थ है कर्तव्यकर्म करनेकी सामग्री प्रदान करनेवाला ।’ यहाँ यदि इष् धातुसे इष्ट पदकी निष्पत्ति करेंगे तो इसी श्लोकके पहिले उपक्रम (३ । ९) से विरोध होगाक्योंकि उसमें स्पष्ट कहा है कि कर्तव्यके लिये कर्म करनेके अतिरिक्त कर्म करनेसे बन्धन होगा । फिर अपनी बातको ब्रह्माजीके वचनोंसे पुष्ट करने-हेतु यहाँ कर्तव्यकर्म करनेसे इच्छित भोग-पदार्थकी प्राप्ति करनेवाला’ यह अर्थ-संगत प्रतीत नहीं होता एवं इसी प्रसंगसे उपसंहारमें भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् (३ । १३) से भी विरोध होगा । अतएव इष्ट पद देवपूजासंगतिकरणार्थक यज् धातुसे निष्पन्न हैजिसका अर्थ हैकर्तव्यकर्मसे भावित । यज्+क्तवचिस्वपि॰’ से संप्रसारणव्रश्चभ्रस्ज॰से ज्’ को ष्’ तत: ष्टुत्वइस प्रकार इष्ट’ शब्द बना है । इसी प्रकार ३ । १२में भी इष्ट शब्द यज्’ धातुसे ही निष्पन्न समझना चाहिये । काम्यन्त इति कामाः इस व्युत्पत्तिसे काम शब्दका अर्थ पदार्थ एवं सामग्री है ।