।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण प्रतिपदावि.सं.२०७१गुरुवार
भगवान्‌ विवस्वान्‌को उपदिष्ट कर्मयोग



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
  कर्मयोगका ठीक-ठीक पालन करनेसे ज्ञान और भक्तिकी प्राप्ति स्वतः हो जाती है । कर्मयोगका पालन करनेसे अपना ही नहींअपितु संसारका भी परम हित होता है । दूसरे लोग देखें या न देखेंसमझें या न समझेंअपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेसे दूसरे लोगोंको कर्तव्य-पालनकी प्रेरणा स्वतः मिलती है ।

दूसरोंकी सेवामें प्रीतिकी मुख्यता होनेके कारण कर्मयोगमें निःसंदेह भोक्तापनका नाश हो जाता है । इसके साथ ही व्यक्ति तथा पदार्थ आदिसे अपने लिये सुखकी चाह एवं आशा न होनेके कारण एवं व्यक्ति आदिके संगठनसे होनेवाली इन क्रियाओंका भी अपने साथ कोई सम्बन्ध न माननेसे कर्तापनका भी नाश स्वतः हो जाता है । कर्मयोगी क्रिया करते समय ही अपनेको कर्ता मानता है । भोक्तापन और कर्तापन एक-दूसरेपर ही अवलम्बित हैं । जब भोक्तापन मिट जायगा तो कर्तापनका अस्तित्व ही नहीं रहेगा और कर्तापन यदि नहीं है तो भोक्तापनका भी कोई आधार नहीं । इन दोनोंमें भी भोक्तापनका त्याग सुगम है ।

भोगोंमें रचे-पचे होनेके कारण उनके संयोगजन्य सुखोंमें आसक्तिसे भले ही यह कठिन प्रतीत होता होकिंतुजो परिवार तथा धन आदिके बीचमें फँसा हुआ भी अपने उद्धारकी इच्छा रखता हैउसके लिये कर्मयोगकी प्रणाली अधिक सुगम है । अतः भगवान्‌ने श्रीमद्भागवतमेंकर्मयोगस्तु कामिनाम् (११ । २० । ७) कहा है ।

वस्तुतः मानव-शरीर कर्मयोगके लिये ही मिला है । चाहे किसी मार्गका साधक क्यों न होउसे कर्मयोगकी प्रणालीको स्वीकार करना ही पड़ेगा ।

कल्याण-प्राप्तिके लिये भगवान्‌ने गीतामें दो निष्ठाएँ बतायी हैं‒(१) ज्ञानयोग एवं (२) कर्मयोग । इन दोनोंमें ज्ञानकी प्राप्तिके अनेक उपायोंमें शास्त्रीय पद्धतिसे ज्ञानार्जनकी प्रक्रिया भी गीतामें वर्णित है1 । यद्यपि इस शास्त्रीय पद्धतिसे प्राप्त ज्ञानकी महिमा भगवान्‌ने कही है2,तथापि अन्तमें यह बताया है कि वही तत्त्वज्ञान कर्मयोगकी प्रणालीसे साधक निश्चय ही स्वयं अपने-आपमें प्राप्त कर लेता है
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।
                                                  (४ । ३८)

तात्पर्य है कि ज्ञानयोग गुरुपरम्परा-(गीता ४ । ३४-) के अधीन है और कठिन भी है3 जब कि कर्मयोगकी प्रणालीमें गुरुकी अनिवार्यता नहीं है4करनेमें सुगम है5फल भी शीघ्र प्राप्त होता है6 तथा कर्मयोगका अनुष्ठान करनेपर वह अवश्य ही फल-प्राप्तिवाला’ हो जाता हैकालेनात्मनि7 विन्दति(४ । ३८) ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे
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 1.  तद्विद्धि   प्रणिपातेन   परिप्रश्नेन   सेवया ।
      उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः ॥
                                              (गीता ४ । ३४)

  2. यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
      येन भूतान्यशेषेण  द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥
      अपि चेदसि पापेभ्यः  सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।
      सर्वं ज्ञानप्लवेनैव     वृजिनं  संतरिष्यसि ॥
      यथैधांसि  समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ।
      ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥
                                          (गीता ४ । ३५- ३७)

    3.सन्न्यासस्तु महाबाहो दुःखमाप्तुमयोगतः ।
       योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (गीता ५ । ६)

   4. तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ (गीता ४ । ३८)

   5. ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति ।
       निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो   सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥ (गीता ५ । ३)

   6. योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति ॥ (गीता ५ । ६)

   7. कालेन इस शब्दमें कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे (पा॰ सू॰ २ । ३ । ५)से प्राप्त द्वितीया विभक्तिका प्रतिषेध कर अपवर्गे तृतीया (पा॰ सू॰ २ । ३ । ६) इस सूत्रसे फल-प्राप्तिके अर्थमें तृतीया विभक्ति हुई है । यद्यपि उक्त सूत्रके द्वारा कालवाची शब्दोंमें तृतीयाका विधान हैतथापि कालातीतके व्यपदेशके लिये तो काल एवं नचिर आदि शब्दोंका ही प्रयोग होता है । अतः नचिरेण (५ । ६) एवं कालेन (४ । ३८) से यह ध्वनित होता है कि कर्मयोगसे शीघ्र तथा अवश्य फलकी प्राप्ति होती हैइसमें संदेह नहीं ।