।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण तृतीयावि.सं.२०७१शनिवार
भगवान्‌ विवस्वान्‌को उपदिष्ट कर्मयोग



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
  भगवान्‌के द्वारा दिये गये कर्मयोगके उपदेशका सूर्यने पालन किया । फलस्वरूप यह कर्मयोग परम्पराको प्राप्त होकर कई पीढ़ियोतक चलता रहा । जनक आदि राजाओंने तथा अच्छे-अच्छे सन्त-महात्मा एवं ऋषि-महर्षियोने इस कर्मयोगका आचरण करके परम सिद्धि प्राप्त की । बहुत काल बीतनेपर जब वह योग लुप्तप्राय हो गयातब पुनः भगवान्‌ने अर्जुनको उसका उपदेश दिया ।

सूर्य सम्पूर्ण जगत्‌के नेत्र हैंउनसे ही सबको ज्ञान प्राप्त होता है एवं उनके उदय होनेपर समस्त प्राणी जाग्रत् हो जाते हैं और अपने-अपने कर्मोंमें लग जाते हैं । सूर्यसे ही मनुष्योंमें कर्तव्यपरायणता आती है । इसी अभिप्रायसे भगवान् सूर्यको सम्पूर्ण जगत्‌का आत्मा कहा गया हैसूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च । अतएव सूर्यको जो उपदेश प्राप्त होगावह सम्पूर्ण प्राणियोंको भी स्वतः प्राप्त हो जायगा । इसीलिये भगवान्‌ने सर्वप्रथम सूर्यको ही उपदेश दिया ।

सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं और अन्नकी उत्पत्ति वर्षासे होती है । वर्षाके अधिष्ठातृदेवता सूर्य हैं । वे ही अपनी किरणोंसे जलका आकर्षण कर उसे वर्षाके रूपमें पृथ्वीपर बरसाते हैं । इसीलिये सम्पूर्ण प्राणियोंका जीवन भगवान् सूर्यपर ही आधारित है । सूर्यके आधारपर ही सम्पूर्ण सृष्टि-चक्र चल रहा है* । सूर्यको उपदेश मिलनेके पश्चात् उनकी कृपासे संसारको शिक्षा मिली है ।

जैसे पृथ्वीसे लिये गये जलको प्राणियोंके हितार्थ सूर्य पुनः पृथ्वीपर ही बरसा देते हैंवैसे ही राजाओंने भी प्रजासे (कर आदिके रूपमें) लिये गये धनको प्रजाके ही हितमें लगा देनेकी उनसे शिक्षा ग्रहण की 

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘कल्याण-पथ’ पुस्तकसे

________________________

* महाभारतमें सूर्यके प्रति कहा गया है
त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा    सर्वदेहिनाम् ।
त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम् ॥
त्वं गतिः सर्वसांख्यानां  योगिनां त्वं परायणम् ।
अनावृतार्गलद्वारं त्वं        गतिस्त्वं मुमुक्षताम् ॥
त्वया संधार्यते   लोकस्त्वया   लोकः प्रकाश्यते ।
त्वया पवित्रीक्रियते   निर्व्याजं   पाल्यते त्वया ॥
                                                                                            (वनपर्व ३ । ३६३८)
सूर्यदेव ! आप सम्पूर्ण जगत्‌के नेत्र तथा समस्त प्राणियोंके आत्मा हैं । आप ही सब जीवोंके उत्पत्ति-स्थान और कर्मानुष्ठानमें लगे हुए पुरुषोंके सदाचार हैं ।
सम्पूर्ण सांख्ययोगियोंके प्राप्तव्य स्थान आप ही हैं । आप ही सब कर्मयोगियोंके आश्रय हैं । आप ही मोक्षके उन्मुक्तद्वार हैं और आप ही मुमुक्षुओंकी गति हैं ।
आप ही सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करते हैं । आपसे ही यह प्रकाशित होता है । आप ही इसे पवित्र करते हैं और आपके ही द्वारा निःस्वार्थभावसे उसका पालन किया जाता है ।

 महाराज दिलीपके सन्दर्भमें महाकवि कालिदासने लिखा है
प्रजानामेव भूत्यर्थं स ताभ्यो बलिमग्रहीत् ।
सहस्रगुणमुत्स्रष्टुमादत्ते   हि   रसं    रवि: ॥
                                                                                              (रघुवंश १ । १८)
जैसे सूर्य सहस्रगुना बरसानेके लिये ही पृथ्वीके जलका आकर्षण करते हैंवैसे ही (सूर्यवंशी) राजा भी अपनी प्रजाके हितके लिये ही प्रजासे कर लिया करते थे ।’