प्रकृति और पुरुष‒ये दो हैं । इन दोनोंके अंशसे बना हुआ यह जीवात्मा है । अब इसका मुख जबतक प्रकृतिकी तरफ रहेगा, तबतक इसको शान्ति नहीं मिल सकती; और यह परमात्माके सम्मुख हो जायगा तो अशान्ति टिकेगी नहीं‒यह पक्की बात है ।
संयोग-वियोग प्रकृतिकी चीज है । हमें जो कुछ मिलाहै, वह सब प्रकृतिका है, उत्पन्न होकर होनेवाला है । परन्तु परमात्मा आने-जानेवाले, मिलने-बिछुड़नेवाले नहीं हैं । परमात्मा सदा मिले हुए रहते हैं; किन्तु प्रकृति कभी मिली हुई नहीं रहती । आपको यह बात अलौकिक लगेगी कि संसार आजतक किसीको भी नहीं मिला है और परमात्मा कभी भी वियुक्त नहीं हुए हैं । संसार मेरे साथ है, शरीर मेरे साथ है, इन्द्रियाँ-मन-बुद्धि मेरे साथ हैं और परमात्मा न जाने कहाँ हैं, पता नहीं‒यह विस्मृति है, मूर्खता है ।
जो कभी हों और कभी न हों, कहीं हों और कहीं न हों,किसीके हों और किसीके न हों, वे परमात्मा हो ही नहीं सकते । सर्वसमर्थ परमात्मामें यह सामर्थ्य नहीं है कि वे किसी समयमें हों और किसी समयमें न हों, किसी देशमें हों और किसी देशमें न हों, किसी वेशमें हों और किसी वेशमें न हों,किसी सम्प्रदायके हों और किसी सम्प्रदायके न हों, किसी व्यक्तिके हों और किसी व्यक्तिके न हों, किसी वर्ण-आश्रमके हों और किसी वर्ण-आश्रमके न हों । भगवान् तो प्राणिमात्रमें समान रहते हैं‒
मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना ।
(गीता ९ । ४)
समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
(गीता ९ । २९)
आपके देखने-सुननेमें जितना जगत् आता है, उस सबमें वे परमात्मा परिपूर्ण हैं‒
भूमा अचल शाश्वत अमल सम ठोस है तू सर्वदा ।
यह देह है पोला घड़ा बनता बिगड़ता है सदा ॥
परमात्मा व्यापक हैं, अचल हैं, ठोस हैं सर्वत्र ठसाठस भरे हुए हैं; परन्तु यह शरीर बिलकुल पोला है, इसमें कोरी पोल-ही-पोल है ! वहम होता है कि इतना मान मिल गया,इतना आदर मिल गया, इतना भोग मिल गया, इतना सुख मिल गया ! वास्तवमें मिला कुछ नहीं है । केवल वहम है,धोखा-है-धोखा ! कुछ नहीं रहेगा । क्या यह शरीर रहनेवाला है ? अनुकूलता रहनेवाली है ? सुख रहनेवाला है ? मान रहनेवाला है ? बड़ाई रहनेवाली है ? इनमें कोई रहनेवाली चीज है क्या ? संसार नाम ही बहनेवालेका है । जो निरन्तर बहता रहे, उसका नाम ‘संसार’ है । यह हरदम बदलता ही रहता है‒‘गच्छतीति जगत् ।’ कभी एक क्षण भी स्थिर नहीं रहता । परन्तु परमात्मा एक क्षण भी कहीं जाते नहीं; जायें कहाँ ? कोई खाली जगह हो तो जायें ! जहाँ जायँ, वहाँ पहलेसे ही परमात्मा भरे हुए हैं ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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