।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण सप्तमीवि.सं.२०७१बुधवार
राग-द्वेषका त्याग



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
यह ठीक हुआयह बेठीक हुआ । नफा हुआनुकसान हुआ । राजी हुएनाराज हुए । यह वैरी हैयह मित्र है । इसने मान कर दियाइसने अपमान कर दिया । इसने निन्दा कर दीइसने प्रशंसा कर दी । इसने आरामसुख दियाइसने दुःख दिया । अब इनको देखते रहोगे तो भगवान् नहीं मिलेंगे । अतः राग-द्वेषके वशीभूत न होंराजी-नाराज न हों‒‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (गीता ३ । ३४) । राजी-नाराज न होनेवालेको भगवान्‌ने त्यागी बताया है‒‘ज्ञेयः स नित्यसंन्यासी यो न द्वेष्टि न कांक्षति ।’ (गीता ५ । ३) जो राग-द्वेष नहीं करताउसको भगवान्‌ने अपना प्यारा भक्त बताया है (गीता १२ । १७) । संसारमें अच्छा और मन्दा तो होता ही रहता है । अतः साधकके लिये इसमें क्या ठीक और क्या बेठीक ‘किं भद्रं किमभद्र वा’ ( श्रीमद्धा ११ । २८ । ४) ।

यह संसार तो एक तमाशा हैखेल है । सिनेमाके परदेपर कभी लड़ाई दीख जाती हैकभी शान्ति दीख जाती है । कभी दीखता है कि आग लग गयीहाहाकार मच गया,गाँव-के-गाँव जल गयेपर परदेको देखो तो वह गरम ही नहीं हुआ ! कभी दीखता है कि वर्षा आ गयीनदीमें जोरसे बाढ़ आ गयीबड़े-बड़े पत्थर बह गयेपशु-पक्षी बह गयेपर परदेको देखो तो वह गीला ही नहीं हुआ ! परन्तु दर्शककी दृष्टि तमाशेकी तरफ ही रहती हैपरदेकी तरफ नहीं । इसी तरह यह संसार भी मायाका एक परदा है । जैसे सिनेमा अँधेरेमें ही दीखता हैऐसे ही माया अज्ञानरूपी अँधेरेमें ही दीखती है । यदि पूरे सिनेमा हालमें बत्तियाँ जला दी जायें तो तमाशा दीखना बन्द हो जायगा । इसी तरह ‘वासुदेवः सर्वम्’(गीता ७ । १९) ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ऐसा प्रकाश हो जाय तो यह तमाशा रहेगा ही नहीं । मशीन तो भगवान् हैं और उसमें मायारूपी फिल्म लगी है । परदेकी जगह यह संसार है । प्रकाश परमात्माका है । अब इस मायाको सच्चा समझकर राजी-नाराज हो गये तो फँस गये ! अतः सन्तोंने कहा है‒‘देखो निरपख होय तमाशा ।’

ठहरनेवाला कोई नहीं है । न अच्छा ठहरनेवाला हैन बुरा ठहरनेवाला है । अपनी उसमें कोई वस्तु टिकी है क्या ?अवस्था टिकी है क्या घटना टिकी है क्या कोई चीज स्थायी रही है क्या पर आप तो वे-के-वे ही हैं । आपके सामने कितना परिवर्तन हुआ ! हमारे देखते-देखते भी कितना परिवर्तन हो गया ! इस शहरके मकानसड़क,रिवाज आदि सब बदल गये । परन्तु संसारमें परमात्मा और शरीरमें आत्मा‒ये दोनों नहीं बदले । शरीर संसारका साथी है और आत्मा परमात्माका साथी है । इसमें कोई कहे कि शरीर मेरा हैतो फँस गया ! जब शरीर संसारका साथी है तो फिर आप एक शरीरको ही अपना क्यों मानते हो ? मानो तो सब शरीरोंको अपना मानोनहीं तो इस शरीरको भी अपना मत मानो ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे