।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
ज्येष्ठ कृष्ण अष्टमीवि.सं.२०७१गुरुवार
राग-द्वेषका त्याग



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे दूसरे शरीरोंकी बेपरवाह करते होऐसे ही इस शरीरकी भी बेपरवाह करो अथवा जैसे इस शरीरकी परवाह करते होऐसे ही जो सामने आयेउसकी भी परवाह करो । जैसे इस शरीरकी पीड़ा नहीं सही जातीऐसे ही दूसरे शरीरोंकी पीड़ा भी न सही जाय तो काम ठीक बैठ जायगा ।

यह बात अच्छी है और यह बुरी है‒यह राग और द्वेष है । जहाँ मन खिंचता हैवहाँ राग है और जहाँ मन फेंकता है,वहाँ द्वेष है । ये राग-द्वेष ही पारमार्थिक मार्गमें लुटेरे हैं‒ ‘तौ ह्यस्य परिपन्धिनौ’ (गीता ३ । ३४) । ये आपकी साधन-सम्पत्ति लूट लेंगेआपको आगे नहीं बढ़ने देंगे । अतः क्या अच्छा और क्या मन्दा क्या सुख और क्या दुःख मनस्वी पुरुष सुख-दुःखको नहीं देखते‒‘मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्’ (नीतिशतक ८२) । वे तो उसको देखते हैं,जो सुख-दुःखसे अतीत है, जहाँ आनन्द-ही-आनन्द है, मौज-ही-मौज हैमस्ती-ही-मस्ती है ! जिसके समान कोई आनन्द हुआ नहींहो सकता नहींसम्भव ही नहींवह आनन्द मनुष्यके सामने है । देवतापशुपक्षीवृक्षराक्षसअसुर,भूत-प्रेतपिशाच एवं नरकके जीवोंके सामने वह आनन्द नहीं है । मनुष्य ही उस आनन्दका अधिकारी है । मनुष्य उस आनन्दको प्राप्त कर सकता है । परन्तु राग- द्वेष करोगे तो वह आनन्द मिलेगा नहीं । अतः आप राग- द्वेषके वशीभूत न हों‒
नहीं  किसीसे  दोस्ती,   नहीं  किसीसे  वैर ।
नहीं किसीके सिरधणीनहीं किसीकी बैर ॥

         भाइयो ! बहनो ! आप थोड़ा ध्यान दें । सुखमें भी आप वही रहते हैं और दुःखमें भी आप वही रहते हैं । यदि आप वही नहीं रहते तो सुख और दुःख‒इन दोनोंको अलग-अलग कौन जानता बहुत सीधी बात है । हमने भी पहले पढ़ा-सुनासाधारण दृष्टिसे देखा तो सुख-दुःखमें समान रहनेमें कठिनता मालूम दी । परन्तु विचारसे देखा कि सुख-दुःख तो आने-जानेवाले हैं‒‘आगमापायिनः’ (गीता २ । १४) और आप हो रहनेवाले । हम यहाँ दरवाजेपर खड़े हो जायँ और इधरसे मोटरें धनाधन आयें तो हम नाचने लगें कि मौज हो गयी,आज तो बहुत मोटरें आयीं ! दूसरे दिन एक भी मोटर नहीं आयी तो लगे रोने । रोते क्यों हो कि आज एक भी मोटर नहीं आयी ! तो धूल कम उड़ीहर्ज क्या हुआ मोटर आये या न आयेतुम्हें इससे क्या मतलब ऐसे ही आपके सामने कई अनुकूलताएँ-प्रतिकूलताएँ आयींआपका आदर-निरादर हुआनिन्दा-प्रशंसा हुईवाह-वाह हुईपर आप वही रहे कि नहीं सुख आया तो आप वही रहेदुःख आया तो आप वही रहे । अतः आप एक ही हो‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४ । २४) । आप अपनेमें ही रहोसुख-दुःखसे मिलो मत,फिर मौज-ही-मौज है ! ‘सदा दिवाली सन्तकी आठों पहर आनन्द ।’

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे