(गत ब्लॉगसे आगेका)
जैसे दूसरे शरीरोंकी बेपरवाह करते हो, ऐसे ही इस शरीरकी भी बेपरवाह करो अथवा जैसे इस शरीरकी परवाह करते हो, ऐसे ही जो सामने आये, उसकी भी परवाह करो । जैसे इस शरीरकी पीड़ा नहीं सही जाती, ऐसे ही दूसरे शरीरोंकी पीड़ा भी न सही जाय तो काम ठीक बैठ जायगा ।
यह बात अच्छी है और यह बुरी है‒यह राग और द्वेष है । जहाँ मन खिंचता है, वहाँ राग है और जहाँ मन फेंकता है,वहाँ द्वेष है । ये राग-द्वेष ही पारमार्थिक मार्गमें लुटेरे हैं‒ ‘तौ ह्यस्य परिपन्धिनौ’ (गीता ३ । ३४) । ये आपकी साधन-सम्पत्ति लूट लेंगे, आपको आगे नहीं बढ़ने देंगे । अतः क्या अच्छा और क्या मन्दा ? क्या सुख और क्या दुःख ? मनस्वी पुरुष सुख-दुःखको नहीं देखते‒‘मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्’ (नीतिशतक ८२) । वे तो उसको देखते हैं,जो सुख-दुःखसे अतीत है, जहाँ आनन्द-ही-आनन्द है, मौज-ही-मौज है, मस्ती-ही-मस्ती है ! जिसके समान कोई आनन्द हुआ नहीं, हो सकता नहीं, सम्भव ही नहीं, वह आनन्द मनुष्यके सामने है । देवता, पशु, पक्षी, वृक्ष, राक्षस, असुर,भूत-प्रेत, पिशाच एवं नरकके जीवोंके सामने वह आनन्द नहीं है । मनुष्य ही उस आनन्दका अधिकारी है । मनुष्य उस आनन्दको प्राप्त कर सकता है । परन्तु राग- द्वेष करोगे तो वह आनन्द मिलेगा नहीं । अतः आप राग- द्वेषके वशीभूत न हों‒
नहीं किसीसे दोस्ती, नहीं किसीसे वैर ।
नहीं किसीके सिरधणी, नहीं किसीकी बैर ॥
भाइयो ! बहनो ! आप थोड़ा ध्यान दें । सुखमें भी आप वही रहते हैं और दुःखमें भी आप वही रहते हैं । यदि आप वही नहीं रहते तो सुख और दुःख‒इन दोनोंको अलग-अलग कौन जानता ? बहुत सीधी बात है । हमने भी पहले पढ़ा-सुना, साधारण दृष्टिसे देखा तो सुख-दुःखमें समान रहनेमें कठिनता मालूम दी । परन्तु विचारसे देखा कि सुख-दुःख तो आने-जानेवाले हैं‒‘आगमापायिनः’ (गीता २ । १४) और आप हो रहनेवाले । हम यहाँ दरवाजेपर खड़े हो जायँ और इधरसे मोटरें धनाधन आयें तो हम नाचने लगें कि मौज हो गयी,आज तो बहुत मोटरें आयीं ! दूसरे दिन एक भी मोटर नहीं आयी तो लगे रोने । रोते क्यों हो ? कि आज एक भी मोटर नहीं आयी ! तो धूल कम उड़ी, हर्ज क्या हुआ ? मोटर आये या न आये, तुम्हें इससे क्या मतलब ? ऐसे ही आपके सामने कई अनुकूलताएँ-प्रतिकूलताएँ आयीं, आपका आदर-निरादर हुआ, निन्दा-प्रशंसा हुई, वाह-वाह हुई, पर आप वही रहे कि नहीं ? सुख आया तो आप वही रहे, दुःख आया तो आप वही रहे । अतः आप एक ही हो‒‘समदुःखसुखः स्वस्थः’ (गीता १४ । २४) । आप अपनेमें ही रहो, सुख-दुःखसे मिलो मत,फिर मौज-ही-मौज है ! ‘सदा दिवाली सन्तकी आठों पहर आनन्द ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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