(गत ब्लॉगसे आगेका)
अच्छा और बुरा लगता है, ठीक और बेठीक लगता है‒यह राग-द्वेष है । इसके वशमें न होना क्या है ? इसको तमाशेकी तरह देखे कि क्या अच्छा है और क्या मन्दा है ! न सुख रहनेवाला है, न दुःख रहनेवाला है । न बीमारी रहनेवाली है, न स्वस्थता रहनेवाली है । कुछ भी रहनेवाला नहीं है । इन सबका वियोग होनेवाला है । बहुत दिनोंतक संयोग रहनेपर भी एक दिन वियोग जरूर होगा‒‘अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषयाः ।’ अतः सज्जनो ! इस बातको पहलेसे ही समझ लो कि एक दिन इन सबका वियोग होगा । लड़का जन्मे, तभी यह समझ लेना चाहिये कि यह मरेगा जरूर ! यह बड़ा होगा कि नहीं होगा, पढ़ेगा कि नहीं पढ़ेगा, इसका विवाह होगा कि नहीं होगा, इसके लड़का-लड़की होंगे कि नहीं‒इसमें सन्देह है; परन्तु यह मरेगा कि नहीं मरेगा‒इसमें कोई सन्देह है क्या ? जन्म हुआ है तो खास काम मरना ही है, और कोई खास काम नहीं है । अब इसमें राजी और नाराज क्या हों । अपने तो मौजसे भगवान्की तरफ चलते रहें । जो वैराग्यवान् होते हैं, विवेकी होते हैं,भगवान्के प्रेमी भक्त होते हैं, वे इन आने-जानेवाले पदार्थोंकी तरफ दृष्टि रखते ही नहीं । वे करनेमें सावधान और होनेमें सदा प्रसन्न रहते हैं ।
रज्जब रोवे कौन को, हँसे सो कौन विचार ।
गये सो आवन के नहीं रहे सो जावनहार ॥
सब जानेवाला है, मरनेवाला है तो क्या हँसें ! जो मर चुके, उनको कितना ही रोयें, वे आनेके हैं नहीं तो क्या रोयें ! यह विचार स्थायी कर लो । फिर राग-द्वेष मिट जायँगे ।
राग-द्वेषको सह लो अर्थात् प्रियकी प्राप्ति होनेपर हर्षित न हों और अप्रियकी प्राप्ति होनेपर उद्विग्न न हों । फिर आप जन्म-मरणसे रहित हो जाओगे । सन्तोंने कहा है‒‘अब हम अमर भये न मरेंगे ।’ अब क्यों मरेंगे ? मरनेवाले तो ये राग-द्वेष ही हैं । इन दोनोंको नाशवान् और पतन करनेवाले समझो । चाहे तो ऐसा समझकर इनसे अलग हो जाओ, नहीं तो भगवान्को पुकारो कि ‘हे नाथ ! हे नाथ !! रक्षा करो !’जैसे, मोटर खराब हो जाय तो खुद ठीक कर लो । खुद ठीक न कर सको तो कारखानेमें भेज दो ! ऐसे ही राग-द्वेषसे अलग न हो सको तो भगवान्की शरणमें चले जाओ । भगवान्ने गीताके अन्तमें कहा कि ‘तू मेरी शरणमें आ जा’‘मामेकं शरणं व्रज’ (गीता १८ । ६६) ।
एक ब्राह्मण देवताकी कन्या बड़ी हो गयी । उसने एक धर्मात्मा सेठके पास जाकर कहा‒‘सेठजी ! कन्या बड़ी हो गयी, क्या करूँ ?’ सेठने कहा‒‘आप वर ढूँढ़ो, तैयारी करो,चिन्ता क्यों करते हो ?’ इसका अर्थ यह नहीं है कि सेठ ही आकर वर ढूँढ़ेंगे, विवाह करायेंगे, प्रत्युत इसका अर्थ है कि चिन्ता मत करो; धन हम दे देंगे, काम तुम करो । इसी तरह भगवान् कहते हैं कि ‘तुम अपना काम करो, चिन्ता मत करो । तुम्हें जो अभाव होगा, उसे मैं पूरा करूँगा ।’
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘सत्संगका प्रसाद’ पुस्तकसे
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