(गत ब्लॉगसे आगेका)
चौथे अध्यायके २३वें श्लोकमें कहा है‒‘यज्ञायाचरतः’,यज्ञके लिये कर्म करनेका अर्थ है-कर्मके लिये कर्म करना अर्थात् लोकसंग्रहके लिये कर्तव्यमात्र करना । फलकी इच्छा,आसक्ति, कामना, कर्तृत्व-अभिमान आदि कुछ भी नहीं रखना । लोकसंग्रहकी बात भगवान् कहते हैं-तीसरे अध्यायके २०वें, २१वें श्लोकोंमें‒‘लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन् कर्तुमर्हसि ।’ इसके बाद वे २२ वें श्लोकमें कहते हैं‒
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
‘मेरे लिये तीनों लोकोंमें न तो कोई कर्तव्य शेष है और न कोई ऐसी प्राप्तव्य वस्तु ही बाकी है, जो अबतक मुझे प्राप्त न हुई हो, तो भी मैं कर्ममें प्रवृत्त होता हूँ ।’ इसका अर्थ यह हुआ कि केवल कर्तव्य-बुद्धिसे, लोकसंग्रहकी दृष्टिसे, लोक-शिक्षाके लिये कर्म किये जाने चाहिये । अपना कोई स्वार्थ न रहे, कोई कर्तृत्व-अभिमान नहीं, ममता नहीं, आसक्ति नहीं,विषमता नहीं, किसी प्रकारकी कोई इच्छा नहीं, कोई आग्रह नहीं एवं कहीं कोई लगाव नहीं । निर्लिप्त होकर जो कर्म किये जाते हैं, वे सब कर्म ‘यज्ञ’ हो जाते हैं । कर्म किया जाय यज्ञार्थ-यज्ञके लिये ही; लोकपरम्परा सुरक्षित रखना ही उसका उद्देश्य हो, लोगोंका पतन न हो‒इसी भावसे कर्म किया जाय, वह होगा ‘यज्ञार्थ कर्म’ । ‘यज्ञ’ शब्दका यह तात्पर्य निकला ।
अब दूसरी दृष्टिसे देखिये कि ‘यज्ञ’ शब्दका क्या अर्थ होना चाहिये । गीताके चौथे अध्यायमें जो ‘यज्ञ’ शब्द आया है, उसी यज्ञके विषयमें अर्जुनने सत्रहवें अध्यायके प्रारम्भमें एक बात पूछी है‒
ये शास्त्रविधिमुत्सुज्य यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तमः ॥
‘शास्त्रविधिका त्याग करके जो यजन करते हैं, उनकी निष्ठा कौन-सी है ?’ जितने यज्ञ होते हैं, सब-के-सब शास्त्र-विधिसे सम्पन्न होते हैं‒‘कर्मजान्विद्धि तान्सर्वान् ।’ ‘एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे’‒‘वे यज्ञ वेदवाणीमें कहे गये हैं ।’ वेदवाणीमें कहे गये अर्थात् शास्त्रोंमें उनका विधान किया गया है । परंतु अर्जुनके प्रश्नमें शास्त्रविधिके त्यागपूर्वक यजनकी बात कही गयी है । इसीपर यह प्रश्न उठाया गया है कि शास्त्रविधिका उल्लंघन करके जो यजन करते हैं, उनकी निष्ठा कौन-सी होगी । शास्त्रविधिके त्यागका फल तो विपरीत होना चाहिये और यजन-पूजनका फल उत्तम होना चाहिये । दोनोंके सम्मिलित परिणामस्वरूप उनकी निष्ठा कौन-सी होगी‒यही प्रश्न अर्जुनके मनमें उठा, जिसका उत्तर भगवान्ने दिया है सत्रहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
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