।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल षष्ठी, वि.सं.–२०७१, सोमवार
श्रीरामानुजाचार्य-जयन्ती
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
वैसे तो सत्रहवाँ अध्याय पूरा इस प्रश्नके उत्तरके रूपमें हैपर यज्ञके विषयमें उत्तर दिया गया है चौथे श्लोकमें‒
यजन्ते सात्त्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसाः ।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये    यजन्ते तामसा जनाः ॥

इससे यह सिद्ध हो गया कि सात्त्विकराजसतामस-तीन तरहकी निष्ठा उनकी होती है । पूजा होती है देवताओंकी । प्रश्न यह होता है कि यजन्ते’ द्वारा जिनके पूजनकी बात कही गयी हैवे देवता कौन हैं और उनका यजन क्या है इनमेंसे पहले प्रश्नका उत्तर उपर्युक्त श्लोकमें यह दिया गया है कि सात्त्विकोंके पूजनीय सात्त्विक देवता हैं;राजस पुरुषोंके पूजनीय यक्ष-राक्षस और तामस पुरुषोंके पूजनीय प्रेत और भूतगण हैं । इनमें जो सात्त्विक आराधक हैं वे क्या करते हैं तथा राजस-तामस आराधक क्या करते हैं ?‒इसका उत्तर चौदहवें अध्यायमें विस्तारसे दिया गया है तथा उनकी गति चौदहवें अध्यायके १८ वें श्लोकमें कही गयी है । विस्तारमें जानेकी यहाँ आवश्यकता नहीं है । यहों सातवें श्लोकसे भगवान् इसका प्रकरण प्रारम्भ करते हैं । भगवान् कहते हैं‒आहार तीन तरहका होता है । परंतु उसके प्रकारोंका उल्लेख करते हुए वे यह नहीं कहते कि ‘उक्त आहार कौन-कौन-से हैं ।’ प्रत्युत यह बतलाते हैं कि सात्त्विक,राजस एवं तामस लोगोंके प्रिय लगनेवाले आहार कौन-कौन-से हैं ।’ यहाँ यह प्रश्न होता है कि ‘उन्होंने ऐसा क्यों किया ?इसका उत्तर यह है कि ‘अर्जुनने शास्त्रविधिको छोड़कर श्रद्धापूर्वक यजन करने-वालोंकी निष्ठा पूछी थी ।’ इसपर भगवान् सत्रहवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहते हैं‒
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य   श्रद्धा  भवति  भारत ।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छद्धः स एव सः ॥

अन्तःकरणके अनुसार श्रद्धा होती हैऐसी दशामें श्रद्धासे ही उसकी निष्ठाका पता लगेगा । उसकी यजन-क्रिया और श्रद्धासे ही उसकी पहचान होगी । शास्त्रविधि तो उसने छोड़ दीअतः उस कसौटीपर उसे नहीं कसा जायगा । ऊपर कहा गया है कि ‘श्रद्धा तीन प्रकारकी होती है और जैसी जिसकी श्रद्धा होती हैवैसा ही वह होता है’;‒इस न्यायसे श्रद्धावान् पुरुष भी तीन ही तरहके होंगे । श्रद्धा होती है अन्तःकरणके अनुरूप । इसलिये तीन ही तरहके आहार उन्हें रुचिकर होंगे । जो किसी भी प्रकारकी पूजा-उपासना नहीं करतेउनकी निष्ठाका पता लगेगा उनके आहारसे । पूजा चाहे कोई न करेआहार तो वह करेगा ही । उसीसे उसकी निष्ठाकी पहचान हो जायगी । इसीलिये भगवान् आहारकी बात कहते हैं‒ ‘आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः ।’कुछ लोग कहते हैं कि सत्रहवें अध्यायके ७वें श्लोकमें तीन प्रकारके आहारका वर्णन हैपरंतु वास्तवमें यह बात है नहीं । भगवान्‌ने आहारके साथ प्रिय’ शब्द दिया है । प्रिय’ शब्द इसलिये दिया गया है कि जैसा आहार मनुष्यको प्रिय होता हैवैसी ही उसकी प्रकृति होगी और जैसी उसकी प्रकृति है,श्रद्धा हैनिष्ठा हैवैसा ही आहार उसे प्रिय लगेगा ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)   
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे