।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल सप्तमी, वि.सं.–२०७१, मंगलवार
श्रीगंगासप्तमी
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
आहारकी प्रियतामें आहारका वर्णन तो स्वतः हो गया । सात्त्विक पुरुषोंको सात्त्विक आहार प्रिय लगता हैराजस पुरुषोंको राजस एवं तामस पुरुषोको तामस आहार प्रिय लगता है । अन्तःकरण आहारके अनुरूप बनता है । सातवें श्लोकके पूर्वार्द्धमें आहारकी बात कहकर फिर उत्तरार्धमें यज्ञ,तप तथा दानके तीन भेद किये हैं । यहाँ यह प्रश्न होता है कि आहारके साथ भगवान्‌ने यज्ञतप और दानकी बात क्यों छेड़ी आहारकी चर्चा तो आयी थी परीक्षाके लिये । इसका उत्तर यह है कि अर्जुनने अपने मूल प्रश्नमें यजन-पूजन करनेवालोंके विषयमें पूछा था । यजनके अन्तर्गत दान और तप भी आ जाते हैं । इसीलिये आगे चलकर सत्रहवें अध्यायके २३वें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च  यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥

परमात्माके नाम हैं‒‘ॐतत् और सत् । ब्राह्मणोंको,वेदोंकोयज्ञोंको जिस परमात्माने बनायाउसी परमात्माके ये तीनों नाम हैं ।’ यज्ञकी क्रिया सम्पन्न करनेवाले ब्राह्मण,यज्ञकी विधि बतानेवाले वेद और यजनकी क्रियाका नाम यज्ञ । परमात्माने इन तीनोंको रचाइसीलिये सत्रहवें अध्यायके २४वें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒
तस्मादोमित्युदाहृत्य    यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥

अतएव हरिः ॐ’ इस प्रकार उच्चारण करके ही यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ करना चाहिये एवं इसी प्रकार ब्रह्मवादी पुरुष करते आये हैं । इसके बाद भगवान् कहते हैं‒
तदित्यनभिसन्धाय         फलं    यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥
सद्भावे   साधुभावे     च      सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते   कर्मणि  तथा    सच्छब्दः  पार्थ युज्यते ॥
                                                                                  (१७ । २५-२६)

भगवान्‌के नामोंका उल्लेख यहाँ इसलिये किया गया कि यज्ञ-दान-तपमें कोई अंग-वैगुण्य रह जाय या कोई कमी रह जाय तो परमात्माके नामोच्चारणसे उसकी पूर्ति कर दी जायक्योंकि परमात्मासे ही यज्ञ पैदा हुएपरमात्मासे ही ब्राह्मण पैदा हुए और वेद भी प्रकट हुए परमात्मासे ही । इनमें कोई कमी रहेगी तो इन सबके मूल परमात्माका नाम लेनेसे उसकी पूर्ति हो जायगी । अठारहवें अध्यायके ५वें श्लोकमें भी इन्हीं तीन शुभ कर्मोंका उल्लेख हुआ है‒
यज्ञदानतपःकर्म न    त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥

कहीं-कहीं शुभ कर्मोंकी संख्या चार भी कही गयी है,जैसे आठवें अध्यायके २८ वें श्लोकमें वेदाध्ययनयज्ञतप और दान‒चारका नाम आया है । कहीं-कहीं पाँचका भी उल्लेख हुआ है‒जैसे ग्यारहवें अध्यायके ४८वें श्लोकमें‒ ‘न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।’ वेदयज्ञ,दानतपके अतिरिक्त पाँचवीं क्रिया भी आ गयी ।

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)   
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे