(गत ब्लॉगसे आगेका)
आहारकी प्रियतामें आहारका वर्णन तो स्वतः हो गया । सात्त्विक पुरुषोंको सात्त्विक आहार प्रिय लगता है; राजस पुरुषोंको राजस एवं तामस पुरुषोको तामस आहार प्रिय लगता है । अन्तःकरण आहारके अनुरूप बनता है । सातवें श्लोकके पूर्वार्द्धमें आहारकी बात कहकर फिर उत्तरार्धमें यज्ञ,तप तथा दानके तीन भेद किये हैं । यहाँ यह प्रश्न होता है कि आहारके साथ भगवान्ने यज्ञ, तप और दानकी बात क्यों छेड़ी ? आहारकी चर्चा तो आयी थी परीक्षाके लिये । इसका उत्तर यह है कि अर्जुनने अपने मूल प्रश्नमें यजन-पूजन करनेवालोंके विषयमें पूछा था । यजनके अन्तर्गत दान और तप भी आ जाते हैं । इसीलिये आगे चलकर सत्रहवें अध्यायके २३वें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः ।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ॥
परमात्माके नाम हैं‒‘ॐ, तत् और सत् । ब्राह्मणोंको,वेदोंको, यज्ञोंको जिस परमात्माने बनाया, उसी परमात्माके ये तीनों नाम हैं ।’ यज्ञकी क्रिया सम्पन्न करनेवाले ब्राह्मण,यज्ञकी विधि बतानेवाले वेद और यजनकी क्रियाका नाम यज्ञ । परमात्माने इन तीनोंको रचा, इसीलिये सत्रहवें अध्यायके २४वें श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒
तस्मादोमित्युदाहृत्य यज्ञदानतपःक्रियाः ।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ताः सततं ब्रह्मवादिनाम् ॥
अतएव ‘हरिः ॐ’ इस प्रकार उच्चारण करके ही यज्ञानुष्ठान प्रारम्भ करना चाहिये एवं इसी प्रकार ब्रह्मवादी पुरुष करते आये हैं । इसके बाद भगवान् कहते हैं‒
तदित्यनभिसन्धाय फलं यज्ञतपःक्रियाः ।
दानक्रियाश्च विविधाः क्रियन्ते मोक्षकाङ्क्षिभिः ॥
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते ।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥
(१७ । २५-२६)
भगवान्के नामोंका उल्लेख यहाँ इसलिये किया गया कि यज्ञ-दान-तपमें कोई अंग-वैगुण्य रह जाय या कोई कमी रह जाय तो परमात्माके नामोच्चारणसे उसकी पूर्ति कर दी जाय; क्योंकि परमात्मासे ही यज्ञ पैदा हुए, परमात्मासे ही ब्राह्मण पैदा हुए और वेद भी प्रकट हुए परमात्मासे ही । इनमें कोई कमी रहेगी तो इन सबके मूल परमात्माका नाम लेनेसे उसकी पूर्ति हो जायगी । अठारहवें अध्यायके ५वें श्लोकमें भी इन्हीं तीन शुभ कर्मोंका उल्लेख हुआ है‒
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत् ।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् ॥
कहीं-कहीं शुभ कर्मोंकी संख्या चार भी कही गयी है,जैसे आठवें अध्यायके २८ वें श्लोकमें वेदाध्ययन, यज्ञ, तप और दान‒चारका नाम आया है । कहीं-कहीं पाँचका भी उल्लेख हुआ है‒जैसे ग्यारहवें अध्यायके ४८वें श्लोकमें‒ ‘न वेदयज्ञाध्ययनैर्न दानैर्न च क्रियाभिर्न तपोभिरुग्रैः ।’ वेद, यज्ञ,दान, तपके अतिरिक्त पाँचवीं क्रिया भी आ गयी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
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