(गत ब्लॉगसे आगेका)
नवें अध्यायके २७वें श्लोकमें यज्ञ, दान आदिके साथ भोजनका उल्लेख हुआ है‒‘यदश्नासि’ कहकर । इस प्रकार शुभ कर्मोंके नामपर कहीं छः का, कहीं पाँचका, कहीं चारका, कहीं तीनका और कहीं केवल एक यज्ञका ही निर्देश भगवान्ने किया है । एक यज्ञके उल्लेखसे सम्पूर्ण शुभ कर्मोंका उल्लेख हो गया । ‘यत्करोषि’ के अन्तर्गत चारों वर्णोंके जीविकोपयोगी कर्म भी आ गये, जिनका वर्णन श्रीभगवान्ने १८ वें अध्यायके ४१वें श्लोकसे प्रारम्भ करके ४२वें श्लोकमें ब्राह्मणके कर्म, ४३वेंमें क्षत्रियके एवं ४४वेंमें वैश्यके तथा शूद्रके कर्म बताये हैं । फिर ४५वें श्लोकमें उन कर्मोंसे होनेवाली सिद्धिका उल्लेख किया है‒‘स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः ।’ जो सिद्धि यज्ञोंसे बतायी गयी, वही यहाँ वर्णोचित कर्मोंसे बतायी गयी है और उसकी प्राप्तिका प्रकार ४६ वें श्लोकमें कहा गया है‒
यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् ।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ॥
‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’ से कर्मद्वारा पूजाकी बात आयी । तब ये कर्म यज्ञरूप ही हुए न ?
माताएँ रसोई बनायें और ऐसा मानें कि मैं इस रूपमें भगवान्का पूजन कर रही हूँ तो रसोई बनाना भी भगवान्का पूजन हो जायगा । मनुजी महाराजने रसोई बनानेकी क्रियाको भी ‘यज्ञ’ कहा है । मनुजी महाराजने लिखा है कि स्त्रीका पतिदेवके घरमें जाना ही उसका गुरुकुल-वास है । कारण, पति ही उसका एकमात्र गुरु है‒‘पतिरेको गुरुः स्त्रीणाम् ।’ वहाँ रसोई बनाना उसके लिये है‒‘अग्निहोत्र’ । अग्निहोत्र ही यज्ञ है । इसी प्रकार विद्यार्थी अपने अध्ययनको यज्ञ मान सकता है । निष्कामभावसे तथा शुद्ध रीतिसे किये गये सांसारिक सभी कार्य ‘यज्ञ’ रूप होते हैं । आयुर्वेदका जाननेवाला केवल जनताके हितके लिये वैद्यका काम करे तो उसके लिये वही यज्ञ है । इस प्रकार गीताके अनुसार कर्तव्यमात्र ही यज्ञ‒भगवान्का पूजन बन जाता है । अवश्य ही कर्ममात्र भगवान्का पूजन तब होगा, जब आप उसे भगवान्की पूजाके लिये करें । परंतु यदि भाव आपका वैसा नहीं होगा तो ‘यो यच्छद्धः स एव सः ।’ जो जैसी श्रद्धावाला होगा उसकी निष्ठा वैसी ही होगी । आप रुपयोंके लिये व्यापार करेंगे तो आपको रुपया मिलेगा, आपका किया हुआ व्यापार यज्ञ नहीं होगा; क्योंकि आपकी वैसी श्रद्धा और वैसा भाव नहीं है । जहाँ आपका वैसा भाव होगा वहीं आपका कर्म यज्ञ बन जायगा ।
अब अपने विचार करें कि यज्ञ क्या है और देवता क्या हैं ? देवता तो हुए यज्ञका फल देनेवाले उसके अधिष्ठातृ-देवता । अब उनका यज्ञके द्वारा पूजन करना है तो पूजन आहुतिके द्वारा भी होता है और कर्तव्यकर्मोंके द्वारा भी । कर्तव्यकर्मोंके द्वारा पूजन सब कोई कर सकते हैं । मनुष्य है मध्यलोक‒मर्त्यलोकका निवासी । स्वर्गलोक, मर्त्यलोक और पाताललोक‒इन तीन लोकोंके समुदायका नाम है‒त्रिलोकी ।
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे
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