।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल दशमी, वि.सं.–२०७१, शुक्रवार
एकादशी-व्रत कल है
सभी कर्तव्य कर्मोंका नाम यज्ञ है



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
यह मनुष्य चाहे तो भगवान्‌का माँ-बाप बन जाय,भगवान्‌का दास बन जायभगवान्‌का भाई-बन्धु बन जाय,भगवान्‌की स्त्री बन जायभगवान्‌का बच्चा बन जाय,भगवान्‌का शिष्य बन जाय या गुरु बन जाय । अपने कुटुम्बसे ही तो आप राजी होते हैं । भगवान्‌का सम्पूर्ण यह मनुष्य बन सकता है । यह भगवान्‌का सब कुछ बन सकता है । भगवान् उसे वही बना लेंगे और वैसी-की-वैसी मर्यादा उसके साथ निभायेंगे । वे उसके सुपुत्र बन जायँगे । भाई भी बनेंगे तो असली । सुपुत्र-सत्पति-सन्माता सब कुछ बन जायेंगे भगवान् । शिष्य बने तो श्रेष्ठ चेला बनेंगे भगवान् । वसिष्ठजीके चेला श्रीराम थे ही । विश्वामित्रजीका चरण वे चाँपते ही थे । वे जहाँ जो भी बनते हैंस्वाँग पूरा उतारते हैं । भगवान्‌का सब कुछ मनुष्य बन सकता हैइतना बड़ा अधिकार मनुष्यको भगवान्‌ने दिया है ।

अब उसके लिये कहते हैं‒‘यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।’ इसके पूर्व ८वें श्लोकमें कहा‒नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।’ नियत कर्म कर और न करनेकी अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है ।’ अकर्मणः ते शरीरयात्रापि न प्रसिद्धज्ञेत् ।’ कुछ नहीं करेगा तो तेरा निर्वाह भी नहीं होगाजीवन भी नहीं चलेगा । कर्म करनेसे ही जीवन-निर्वाह होगा ।’ साथ ही शास्त्रोंमें यह भी कहा है कि कर्मोंसे जन्तु बँधता है । कर्मणा बध्यते जन्तुर्विद्यया च विमुव्यते ।’ यह ध्यान देनेकी बात है कि यहाँ जन्तु’ शब्दका प्रयोग हुआ है । जन्तु’ शब्दका स्वारस्य यह है कि जन्तु (जानवर) ही बन्धनमें आते हैंमनुष्य नहीं । मनुष्य बँधता है सकाम कर्म करकेस्वार्थबुद्धिसे । ऐसे मनुष्यको जन्तु ही समझें । गीता भी कहती है‒‘अज्ञानेनावृत ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ।’ जो स्वार्थबुद्धिसे प्रेरित होकर मोहमें फँसे हुए हैंवे मनुष्य थोड़े ही हैंवे तो जन्तु हैं‒भले ही उनकी आकृति मनुष्यकी-सी ही हो । यद् यद्धि कुरुते जन्तुस्तत् तत् कामस्य चेष्टितम् ।’ जानवरकी सारी चेष्टाएँ कामयुक्त‒स्वार्थप्रेरित होती हैं । कामनासे ही कर्म बन्धनकारक होता है ।
इसलिये भगवान् कह हैं‒
यज्ञार्थात् कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः ।

जो कर्म परमात्माकी प्रसन्नताके लियेलोकसंग्रहके लियेसब लोगोंके उद्धारके लियेआसक्तिस्वार्थ और कामनाको त्यागकर किया जाता है, वह बाँधता नहीं है । यही है यज्ञ’ 

इसके अगले श्लोकमें भगवान् कहते हैं‒‘सहयज्ञा प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।’ सृष्टिके आदिमें प्रजापति ब्रह्माने यज्ञोंके साथ प्रजाओंको उत्पन्न किया । यहाँ प्रजाः’शब्दके अन्तर्गत ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्र-सभी आ जाते हैं । प्रजाः’ शब्दके साथ सहयज्ञाः’ विशेषणको देखकर यह शंका होती है कि यज्ञमें सबका अधिकार तो है नहींफिर भगवान्‌ने सारे प्रजाजनोंके साथ यह विशेषण क्यों लगाया ?

  (शेष आगेके ब्लॉगमें)    
‒‘जीवनोपयोगी कल्याण-मार्ग’ पुस्तकसे