।। श्रीहरिः ।।

आजकी शुभ तिथि
आषाढ़ कृष्ण षष्ठीवि.सं.२०७१बुधवार
आहार-शुद्धि



 (गत ब्लॉगसे आगेका)
 ज्ञातव्य

प्रश्न‒आयुर्वेद और धर्मशास्त्रमें विरोध क्यों है जैसे,आयुर्वेद अरिष्टआसवमदिरामांस आदिका विधान करता है और धर्मशास्त्र इनका निषेध करता हैऐसा क्यों ?

उत्तर‒शास्त्र चार प्रकारके हैं‒नीतिशास्त्रआयुर्वेद-शास्त्रधर्मशास्त्र और मोक्षशास्त्र । ‘नीतिशास्त्र’ में धन-सम्पत्तिजमीन-जायदादवैभव आदिको प्राप्त करनेका एवं रखनेका उद्देश्य ही मुख्य है । नीतिशास्त्रमें कूटनीतिका वर्णन भी आता हैजिसमें दूसरोंके साथ छल-कपटविश्वासघात आदि करनेकी बात भी आती हैजो कि ग्राह्य नहीं है ।‘आयुर्वेदशास्त्र’ में शरीरकी ही मुख्यता हैअतः उसमें वही बात आती हैजिससे शरीर ठीक रहे । वह बात कहीं-कहीं धर्मशास्त्रसे विरुद्ध भी पड़ती है । ‘धर्मशास्त्र’ में सुखभोगकी मुख्यता हैअतः उसमें वही बात आती हैजिससे यहाँ भी सुख हो और परलोकमें भी (स्वर्गादि लोकोंमें) सुख हो ।‘मोक्षशास्त्र’ में जीवके कल्याणकी मुख्यता हैअतः उसमें वही बात आती हैजिससे जीवका कल्याण (उद्धार) हो जाय । मोक्षशास्त्रमें धर्मविरुद्ध बात नहीं आती । उसमें सकामभावका भी वर्णन आता हैपर उसकी उसमें महिमा नहीं कही गयी हैप्रत्युत निन्दा ही की गयी है । कारण कि साधकमें जबतक सकामभाव रहता हैतबतक परमात्मप्राप्तिमें देरी लगती ही है । इहलोक और परलोकके सुखकी कामनाका त्याग करनेपर धर्मशास्त्र भी मोक्षमें सहायक हो जाता है ।

आयुर्वेदमें शरीरकी ही मुख्यता रहती है । अतः किसी भी तरहसे शरीर स्वस्थनीरोग रहे‒इसके लिये आयुर्वेदमें जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयोंके तथा मांसमदिराआसव आदिके सेवनका विधान आता है । धर्मशास्त्रमें सुखभोगकी मुख्यता रहती हैअतः उसमें भी स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये किये जानेवाले अश्वमेध आदि यज्ञोंमें पशुबलिकाहिंसाका वर्णन आता है । वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विधि-विधानसे की हुई (वैदिकी) हिंसाको हिंसा नहीं माना जाता । हिंसा न माननेपर भी हिंसाका पाप तो लगता ही है* । इसके सिवाय मांसका सेवन करते-करते मनुष्यका स्वभाव बिगड़ जाता है । फिर उसमें परलोककी प्रधानता न रहकर स्थूलशरीरकी प्रधानता हो जाती है और वह शास्त्रीय विधानके बिना भी मांसका सेवन करने लग जाता है ।

   (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒‘आहार-शुद्धि’ पुस्तकसे
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* शतक्रतु इन्द्र (सौ यज्ञ करके इन्द्र बननेवाला) भी दुःखी होता हैउसपर भी आफत आती है । उसके मनमें भी ईर्ष्याभयअशान्ति आदि होते हैं कि मेरा पद कोई छीन न ले आदि । यह वैदिकी हिंसाके पापका ही फल है ।